भारतीय कला का सिंहावलोकन | Bhartiya Kala Ka Sinhavlokan
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
140
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मूत्ति कला
सि न्धु सभ्यता की प्रा्गंतिहासिक और मौयकालीन
( चोंथी और तीसरी शताब्दी ইত দুল)
मंस्कृतियों में बड़ा अन्तर है। इतिहास की प्रगति ने
कलाकारों के मनन््तव्य और विचारों में इस बीच
काफी अन्तर डाल दिया है। ईसा पूर्व तीसरी
शताब्दी में पत्थर की मृतिं कला नण सिरे म
चमकी। शली की दन्नता, अभिराम त्रकरति के
निर्माण और भावों को व्यक्त करने में इस काल
का तन्नक अपना मानी नहीं ग्खता। भागतीय
कला के इतिहास में मौय कला शक्ति, गति और
गुरुता में अपना वहीं स्थान र्ग॒खती है जो तन््कालीन
गजनीतिक इतिहाम मं ग्ग्वती ह| साग्नाथ का
सिंह-मस्तक, जी आज भारत का गए-चिन्ह ই, হালি,
ओर भवि की अभिव्यक्ति में सवंधा बेजोड हैं।
कलाकार क्री मधा ने पत्थर में जान डाल दी है ।
इस मस्तक के चार सिंह चारों दिशाओं की ओर
मह करिण पीठ मे पीर सटाये खड़े हैं और नीच
चार पशु चक्रो के अन्तर से होइड़ते टिखाये गये
हैं। मिह शनिः के प्रतीक हैं, दोड़ते पशु गति
के ऑर चक्र मानत्र भाग्य की बनती-बिगड़ती परिस्थि-
तियो के। इनका आधार अधोमुग्ी पंख्ुड़ियो बाला
कमल या घंटा है और यहे सारी रचना ऊपर
के धमचक् का ब्राधार है। अशोक-स्तम्भ का यह
अद्भुत मम्तक दुनिया की मृ्ति-कला म॑ अपना विशेष
स्थान ग्ग्वता हैं। बिहार प्रान्त क गमपुग्वामं भी
एक ऐसा ही अद्भुत म्तम्भ है जिसका सांडू की
आकृति का मस्तक शक्ति ओर गति, भूर्ति-निर्माण
ओर स्वराभाविकता में अपना आदश आप है |
मोयू-काल की यह कला निम्मन्देह गाजकीय थी
ओर হালা की संगरक्षकता में फूली-फली थी। परन्तु
इसके अतिरिक्त उस समय जन-कला का भी उदय और
विकास हुआ, जिसमे साधारण जनता के भाव, उसके
भय ओर विश्वास अनुग्राग्गित हुए | यक्ध और यक्तियों
के से देवी-देवताओं म॑ उस समय लोगो का अगाघ
विश्वास था और उस ममय की कला इन्हीं मूर्तियो
से सजाई गई थी। यक्ष ओर यक्तियों की ये मृत्तियां
असीम शक्ति की प्रतीक हैं। उनकी भरी आकृति
जीवन की उस खुली, गर्वीली और उच्छु ग्बल भावुकता
को अभिव्यक्त करती है जो उस काल की विजयिनी
भाग्तीय जाति की विशेषता थी। ये आकृतियाँ
नाम मात्र को देवी थरीं। अस्तृतः वे रक्त मांस
क्र नग्-नाग्य के नमूने थ, जिनमं दवी लक्षणों का
चमत्कार भर दिया गया था। यक्षियाँ की ये प्राचीन
मृत्तियां मानव-शक्ति और क्रोध-विल्लासम का मृत्तिमान
उठाहरण हैं। पटना म्यूजियम मे संग्रहीत दीदार-
गंज की यक्षी रूप की अभिव्यक्ति, आकृति की
प्रण रेखा और कला की खसृूधद्मता का अद्भुत
आदश प्रस्तुत करती है। इसकी पालिश मोगयकाल
के सुन्दगर्तम नमनो में से है। इस काल की भागतीय
मृजि कला में विराग का भाव प्रायः नहीं मिलता,
उसमें विशेषतः विनय, शक्ति ओर सोन्द्य की आरा-
धना |
ईसा पूर्व दुसरे शताब्दी में इस जन-कला ने
अद्भुत प्रति की | बोद्ध धरम के प्रभाव से ऊच-नीच
जन-बिश्वासों के सामंजस्य ने मृत्ति कला में एक नई
মজিলা तय की । भरहुत ओर सांची (ईसा पृव दूसरी
ओर पहली शताब्दी) के स्तूपों के तोरण द्वार्ग और
बदिकाओं (रलिंगों) पर जिन विविध आक्ृतियों का
उत्खचन है बह शुंग काल की संस्कृति का मृत्त उदा-
हेग्गा प्रस्तुत करता है। इन दिनों जिन दरी-ग्रहों
(गुफाओं) का निर्माण हुआ उनमें भी कला का बही
जीबित रूप प्रदर्शित हैं। गजा और प्रजा, सेठ ओर
किसान, पशु और पोध इन म्तृपों की मृत्तियो मं ममान
रूप से स्थान पाते हैं और तत्कालीन धामिक जीवन और
मामाजिक प्रगति की अनुप्रागित करत हैं। अमरावती
और न गगाजनकोंडा (लगभग १००--३०० ईस्बी) के
स्तूपो की संगमरमर की पद्विकार कला की उसी शताब्दी
ओर परमग्पतः को विकसित करती हैं। उनकी
आक्रतियों के उभार सजीबता ओर स्वाभाविकता के
नमने वन गण ह|
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