मलिक मुहम्मद जायसी | Mulik Muhammad Jayasi

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Mulik Muhammad Jayasi by डॉ कमल कुलश्रेष्ठ - Dr Kamal Kulshreshtha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मल्निक मुहभ्मद जायसी धरती पारि, छात भहरानी । पुनि मह सथा भौ सि दिरानी ॥१ ३--सूरुज (अल) सेवक ताकर श्रै । श्रारौ पहर पिरत जो रक ॥ सो अस बपुरे गहने लीन्हा । গী মাং बॉाँधि चंडाले दीन्हा ॥ गा अलोप होह, सा अधियारा । दीखे दिनहि सरग महँ तारा ॥ डचते मप्पि लीन्‍्ह, घुप चाँपे । लारा सरब जिड थरथर कॉपे ॥ जिर कहैं परे ज्ञान सब বু । तब होह मोख गहन जो छूटे ॥* ४-- जायस नगर मोर श्रस्थानू । नगर के नांव श्रादि उदयान्‌ ॥ तकल दिवस दस पहने भाद । भा वैराग बहुत सुख पाएड ॥४ ४--जायस नगर धरम अस्थानू । तहों आइ कवि कोनद बखानू ॥ ६--एक नधनं कवि भुद्दसद गुती | सोद बिसोह्दा जेइ कि सुनी ॥ ७--जग सूका एके नयनां । उश्चा सूक जस नखतन्ह माषं ॥* १ जा० यं पृष्ट ३८४ वही पृष्ठ ३८४५ ४ वही पृष्ठ १५ वही पृष्ठ ३८७ ५ वही पृष्ठ ९ ९ वही




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