नारी पान्नों का तुलनात्मक अध्ययन | Naari Paatron Ka Tulnatmak Addhyan
श्रेणी : हिंदी / Hindi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
108 MB
कुल पष्ठ :
488
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नाना अनुकूलताओं एवं प्रतिकूलताओं के मध्य एक प्राणी को दूसरे प्राणी-मनुष्य को
मनुष्य के निकट लाने का प्रयास सनातन कालसे चलता आ रहा है । जीवन की इस जय
यात्रा में मानव ने जहां एक ओर लोक कल्याण के पथ को प्रशस्त करने का प्रयास किया हे,
वहां दूसरी ओर उसने आत्म कल्याण की भूमि को भी स्वच्छ बनाने का प्रयत्न किया है । जिस
युग में इन दो पक्षों का तादात्म्य नहीं हो पाता, उस युग का काव्य विवेक ओर हृदय के
असांमजस्य के कारण रागात्मक भूमि बनाने में अक्षम हो, जाया करता है । जब क्रिया ओर
` चिन्तन का सम्यक् स्वावलम्बन ओर परस्परावलम्बन होता है, तब श्रद्धा ओर आस्था का
जन्म होता हे, जिनसे साधरीकरण होता हे ! इस रागात्मक संबंध की अवस्थाय मनुष्य की
आयु के अनुसार परिवर्तित होती रहती है, किन्तु रति सबमें होती है । रति का व्यापक रूप
मानवीयता है । उसकी यदी विशिष्टता काव्य के स्थायित्व ओर प्रियता का आधार हे ।
संयो गच्छा अथवा प्रजनन प्रवुत्ति-
सृष्टि में नर-नारी के संयोग का अत्यन्त महत्वपूर्णं स्थान है । सृष्टि के कण-कण में यह
पारस्परिक कामुक आकर्षण-पारस्परिक मिलन की उत्कृट आकांक्षा तीत्रतम रूप में विद्यमान
है | संसार में जो कुछ है, वह सब एक दूसरे के साथ मिलनातुर है, एक दूसरे के साथ अदृश्य
प्रेम-सूत्र से आबद्ध है । “यह संबंध मानव बुद्धि से परे भले ही हो, किन्तु इस संबंध द्वारा कहीं
ज्ञात और कहीं अज्ञात रूप से संसार के सृजनादि समस्त मंगलमूलक कार्य यथाकाल होते
` रहते हे ।(16)
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अर्थात् विश्व की सभी वस्तुयें चाहे वे दूरस्थ हो या स्निकट एक शाश्वत शक्ति के द्वारा
अलक्षित ढंग से एक दूसरे से संयुक्त है । एक सितारे को प्रभावित किये बिना फूल को भी नहीं
तोडा जा सकता ।(1, संसार अथवा प्रकृति की विशाल रंगशाला में सर्वत्र पारस्परिक संयोगेच्छा
अथवा प्रजनन प्रवृत्ति की विराट लीला देखी जा सकती हे ।
॥ भंग फूलों पर गृंजता फिरता है, कभी उन पर बैठता है, कभी उनका रस ग्रहण करता
है और कभी एक पुष्प का रज वहन करके दूसरों तक पहुंचा आता हे । तितलियां नाचती
फिरती है, चूम-चूमकर फूलों की बलायें लेती हैँ । उनसे गले मिलती है, अपने रंग में उन्हे
ओर उनके रंग मे अपने को रंगती हे, ओर फिर न जाने कहां चक्र काटती हुईं चली जाती `
हैं। मधुमक्खी चुपचाप आती हैं फूलों के साथ बिहार करती है, उनसे रस-संचय करती हैं,
कुछ को पी जाती है और कुछ को लिये संभलती, बचती न जाने कहां से कहां पहुंच जाती
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