सिन्दूर की लाज | Sindoor Ki Laaj

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Sindoor Ki Laaj by ब्रजेन्द्र नाथ गौड़ - Brajendra Nath Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिन्दूर की लाज ओर सींखचेदार खिड़की थी ! >< >< >< पूरे चौबीस घण्टे बाद, दुखरे दिन, वहां गया । उस दिन रसोई-घर में घेरा था, परन्तु जिस कमरे की खिड़की से मैंने उन्हें पत्र दिया था, उस खिड़की से रोशनी श्रा रदी थी । उधर गया तो, खिड़की के पास ही एक कुर्सी पर बैठीं वे कुछ बुन रही थीं। मेंने नमस्ते किया, तो वे हँस पड़ीं--कुछ बोलीं नहीं । एक बार कमरा देख कर उन्होंने बॉडी से पत्र निकाल कर मेरी ओर बढा दिया और खिड़की के पास मंद लाकर धीरे से कह्ा--“आपका ही इन्तजार था |? ০২ या (~ मेंने कहा-'कष्ट के लिए क्षमा चाहता हूँ? “४ . ০ उन्होंने हंस कर कहा--“आप बनाते बहुत हैं | এ गम्भीरता से मेने कदा--्वुम बहुत सुन्दर हो ।? वे हँसीं और कद्ा--“बड़ी बिली हूँ, अब फिर कभी } | मैंने उनकी ओर देखा और उन्होंने मेरी ओर । तब वें चली गई । > >< >< मुभे याद है, उनका पत्र पट कर मेरा साहस उनकी ओर जाने की गवाही न दे सका, क्षमा-प्राथना भी न कर सका | दिन बीत गये, महीने युग के आवरण में छिप गये, वर्ष शूल्य में विलीन दो गये, लेकिन उनका वह पत्र, ससार भर के परिवर्तन के बाद मी, मेरे पास सुरक्षित रूप में वैसा ही रखा है। उनके पन्न ने मेरे हृदय पर बड़ा असर किया। जब कभी उनका ख़याल आता हे, मेरा मस्तक उनको पुण्य स्मृति मे, स्ड्ोच के कारण भुक जाता है। आप पूछेंगे, उनका यह पत्र मेरे पास क्यो है ? तो मैं इस प्रश्न का उत्तर न दे सकूँगा। यही उनका अन्तिम और पहला पत्र है। उनके द €




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