प्रवचनरत्नाकर | Pravachanratnakar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
472
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल - Dr. Hukamchand Bharill
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)हमें सन्मार्ग में लगानेवाले हमारे माता-पिता
हमें धर्ममार्ग मे लगानेवाले हमारे पूज्य पिता श्री भगवानजीभाई कचरा भाई
शाह एवं माता स्व. श्री डाहीनेन भगवानजी शाह जब से पूज्य गुरुदेवश्री
कानजीस्वामी के सत्समागम में आये, तब से उनके हृदय मेँ सच्चे वीतरागी जिनधर्म
की भावना विशेष जागृत हो गर्ई। एक प्रकार से उनका जीवन ही बदल गया।
आपने मुम्बासा तथा थाणा में चलनेवाले व्यवसाय से निवृत्ति लेकर पूज्य गुरुदेव
श्री के चरण-सान्निध्य में अधिक समय तक रहने के लिए सोनगढ मे मकान
बनवाया तथा १६ वर्ष तक उनके सत्समागम में रहे ।
आपने सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए २० वर्ष तक सत्समागम, अभ्यास
ओर ज्ञान-वैराग्य मेँ यथाशक्ति अपने को लगाए रखा । उनके सोनगदढ मेँ रहने का
एक उदेश्य यह भी था कि हम लोग भी बारम्बार सोनगद़ आकर आध्यात्मिक
ओर धार्मिक संस्कारों का सिंचन करे ओर आत्महित के पथ मेँ लगे रहे ।
वैसे तो लोक में इसप्रकार की पद्धति है कि मात्ता-पिता के स्वर्गवास के बाद
लोग उनकी स्मृति में शास्त्रों का प्रकाशन कराते हैं, प्रकाशन में सहयोग देते हैं, पर
हमारे माता-पिता की भावना को देखकर हमने उनके जीवन काल में ही यह पवित्र
कार्य करना आरम्भ कर दिया। परिणामस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में महत्त्वपूर्ण
सहयोग देने का संकल्प किया है। यह उनकी पावन प्रेरणा का ही परिणाम है।
उनके उपकारो का स्मरण करते हुए हम उनके बारे में दो शब्द लिखना अपना
कर्तव्य समझते हैं।
सन् १९२४ में चापाबेराजा (जामनगर) ग्राम के निवासी हमारे पिताश्री
१८ वर्ष की उम्र में अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए पूर्व अफ्रीका के
किटाले नामक ग्राम में तथा उसके बाद मुम्बासा गये और भरपूर अर्थोपार्जन किया,
हम सबको उसका उत्तराधिकारी बनाया। यह सब तो ठीक, पर उन्होंने जो हमें
धार्मिक संस्कार दिये हैं, वह हम सबकी सच्ची और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सम्पत्ति
है। आपने अपने जीवन में अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न किये हैं।
सर्वप्रथम ८ नवम्बर, १९५९ में उन्हें जामनगर में दिगम्बर जिन-मन्दिर का
शिलान्यास करने का लाभ मिला। उनकी भावनानुसार वह जिनमंदिर शीघ्र ही
तैयार हो गया और दो वर्ष बाद ही पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के सान्निध्य
मे उसका पंचकल्याणक महोत्सव हुआ। आज वह भव्य जिनालय भव्यजनों को
आत्माराधना और जिनेन्द्र भक्ति करने का उत्तम धर्मस्थान है ।
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