षड्दर्शनसमुच्चय: | Saddarsanasamuccaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क प्रस्तावना, ११ वादोके अरावा गौण भौ अनेकवादोकी चर्चा देखी जा सकतीं है जैसे कि प्रत्यक्षकक्षण, सत्कार्य-असत्कार्य बाद आदि । नयचक्रके नयविषयक मतका सारांश यह है कि $ अंशसे किया हुआ दर्शन तय है अतएवं वही एकमात्र दर्शन नहीं हो सकता । उसका विरोधी दर्शन भी है और उसको भी वस्तुदर्शनमें स्थान मिलना चाहिए । उन्होंने उस समय प्रचलित विविध मतोंको भर्थात्‌ विविध जैनेतर मतोंको ही नय माना गौर उन्हींके समृहको जैनदर्शन या अनेकान्तवाद माना । ये ही जनेतर मत पृथक्‌-पृथक्‌ नयाभास है ओर अनेकान्तवादके चक्रमे यथास्थान सन्निहित होकर नय हैं । + स्पष्ट हैं कि आचार्य उमास्वातिकी नयकी समझ और आचार्य मल्लवादीकी नयंकी समझमें अन्तर है । उमास्वाति नयोंको परमतोंसे पृथक्‌ ही रखना चाहते हैं वहों मल्लवादी परंवादों--परमतोंको ही नयचक्रम स्यान देकर अनेकान्तवादकी स्थापनाका प्रयत्न केरते हैँ । नयचक्रका यह्‌ प्रयत्नं उन्हीं तके सीमित्त रहा । केवल नयाभासोंके वर्णनमें परमतोंको स्थान दिलानेमें वे निमित्त अवश्य हुए। अकलंकसे छेकर अन्य सभी जैताचार्योने नयाभासके दृष्टाल्तरूपसे विविध दर्शनोंको स्थान दिया है किन्तु नयोंके वर्णनमें केवल जैनदृष्टि ही रखी है । उसे किसी अन्यदीय मतके साथ जोड़ा नहीं है । | यहाँ यह भी प्रासंगिक कह देना चाहिए कि विशेषावश्यकके कर्ता आचार्य जिनभ्रद्र नयचक्रके इस मतसे सहमत हः कि विविषु_ नयोका सुमु ही _जैनदडनि है-( गा० ७२ } ! किन्तु उन्होने भी . नयवर्णनके प्रसंगमे नयरूपसे अन्यदीय मतका निरूपण नहीं किया - किन्तु जनसम्मत नयोका निरूपण किया ! इस अर्थमें वै उमास्वातिका अनुसरण करते है, नयचक्रका नहीं । सारांश कि इतना तो सिद्ध উজা कि सर्वनयोका समूह হী জনবল হা অয हो कवा ह । यही सत सिद्धसेनने भी स्पष्ट रूपसे स्वोकृत्त किया था ।, षडदश्शनसमुच्चय गौर शास्त्रवातसिमुर्चय आचार्य हरिभद्नने ये दो ग्रन्थ लिखि । उन दोनोमें उनकी रचनकरी दृष्टि भिन्न-भिन्न रही है । पड्‌- दइनिसमुच्वयमे तो छहों दर्शनोंका सामान्य परिचय करा देना ही उदिष्ट | दर्शनोंका सामान्य परिचय करा देना उह ष्ट है। इसके विपरीत स्वाराः समुच्चयमें जैनदृष्टसिसि विविध दर्शनोंका निराकरण करके जैनदर्रन और मन्य. दर्शनोंमें भेद मिटाना हो तो तद्दर्शनमे किस प्रकारका संशोघन होना जरूरी है यहं निविष्ट करिया है । अर्थात्‌ जैनदर्शनके साय अन्य-अन्य दर्शनोंका समन्वय उन दर्शनोंमें कुछ संशोधन किया जाय तो हो सकता है--इस ओर इशारा आचार्य हरिभद्रने किया हैँ । नयचक्रकी पद्धति ओौर शास्त्रवार्ताकों पद्धतिमें यह भेद हैं कि नयचक्रमें प्रथम एक दर्शनकी स्थापना होनेके वाद उसके विरोधमें अन्य दर्शन खड़ा होता है + भी विरोधमें क्रमशः अन्य दर्शन--इस प्रकार तत्कालके विविध दर्शनोंका बलाबलू देखकर दीने एक दर्शनके विरोधे अन्य द्धन खड़ा कियाहै भौर द्नचक्रको र्वनाकीदहै। कोर दकं रकम बेड प्रवल नहीं मौर कोई दर्शन सर्वथा निर्वल नहीं । यह चित्र नयचक्रमें हैं। तब शस्त्रवातसमुच्चय अन्य सभी दर्शन निर्वल ही हैं और केवल जैनदर्शन ही सयुक्तिक है--यही स्थापना है । दोनों ग्रन्थों में समग्रभावसे भारतीय दर्शनोंका संग्रह है । नयचक्रमें गौण-मुख्य सभी सिद्धान्तोंका और शास्त्रवार्तामें मुख्य-मुख्य दर्शनोका और उनमें भी उनके मुख्य सिद्धान्तोका ही संग्रह है । के जिस रुपमें आचार्य हरिभद्वते दर्शनोंकी छह संख्या मान्य -रखी है वह उन्की हो सूझ है । सामान्य रुपसे छह दर्शनोंमें छह वैदिक दर्शन ही गिने जाते हैं किन्तु आचार्य हरिभद्रको छ्ह्‌ বা से बौद्ध दर्शन भी शामिल करना था অন্ত না ६ सांख्य, रयोग, ३ বন ४ ক রর भीमांसा और ६ उत्तरमीर्मासा इन টে स्थानमें छह সে ¢ চিপ ह २ नैयायिक, २.स्य्‌, ५४ जन्‌, ५ वैशेषिक और ९ जैमिनीय । ओर ये




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