कर्मस्तव - दूसरा कर्मग्रंथ | Karmstav Dusara Karmgranth

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Karmstav Dusara Karmgranth by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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£ € ७) सयलगेसक्गेउ्कगहियार समित्यर ससखेय । बगणुशसत्य ययथुर्‌ उम्मरद्ा होइ खियमेण ॥ (मो कम सा स्ट) ¢ अर्थात्‌ किसी बिपय फे समस्त अ्रगो का विस्तार या सद्देप से घर्णन करनयाला शास्त्र ' स्तय ' कट्दाता है । एक अंग का पिस्तार या सक्तेप स चणन करनवाला शारुर स्तुति और एक अग के किसी श्रधिलार का वर्णन जिसमे है बह शास्त्र 'धमेकथा' कद्दाता है 1 इस प्रकार विपय शोर नामकरण दोनों सुत्यप्राय दाने पर भी नामाये भे जो भेद्‌ पाया जाता र, वद सम्प्रदायम्‌ तथा प्रन्थ रचना सम्बन्धी देश-फाल के भेद का पारिणाम ज्ञान पडता है। ग्रुणस्थान का सत्तिप्त सामान्य-स्वरूप। आत्मा की अवस्था किसों समय श्रश्ञान पूर्ण होती है । चह अधस्था सब से प्रथम होने के कारण निएष्ट हे। उस अवस्था से आत्मा श्रपने स्यामाविक चेतना, चारिन आदि शुण्णो के विकास की पर्दालत निकतता है, और धीरे মাই उन शक्तियो फे विकास के श्रजुसार उत्क्रान्ति करता हुआ विकास की पूर्णकला--अन्तिम हृद-को पहुँच जाता है । पहली निरए श्रसस्था से निकल कर, विकास की आखरी भूमि को पाना ही आत्मा का पसम साध्य है।इस परम साध्य की सिद्धि होगे तक आत्मा को एक के याद दूसरी, दूसरी के




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