सरल जैन धर्म भाग - १ | Saral Jain Dharam Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
145
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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तुम जगभूषण दृषणवियुक्रत । सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ४
अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप । परमात्म परम पावन अनूप |
शुभअशभविभाव अभाष कीन । स्वाभाविक परिणतिमय अछीत
अष्टादश दोष विमुक्त घीर | स्वचतुष्टयमय राजत गम्भीर ।
मुनिगणधरादि सेवत महत । नव केवल-लब्धि-रमा धरंत ॥६॥
तुम शासन सेय अमेय जीव | शिव गये जाहि जहे सदीव ।
भव सागरमें दुख छार वारि। तारन को और न आप टारि 1৩॥
यह বি নিজ दुख-गद्-हरण काज । तुमही निमित्तकारण इलाज
जाने, तारतँ मे शरण श्राय । उचरों निज दुख जो विरलदहाय ॥५८॥
में श्रम्यो अपनपो विसरि आप | अपनाये विधि-फल्न पुण्य पाप ।
निजको परको करवा पिछान । परमें अनिष्टता इष्ट ठान ॥६॥
आकुलित भयो अज्ञान घारि।। ज्यों सृग झगतृष्णा जान बारि।
तन परिणतिमें आपो चितार । कबहूं न अनुभवों स्वपद सार ॥१०
तुमको जिन जाने जो कलेश । पाये सा तुम जानत जिनेश |
पशु नारक नरसर गति मंकार। भव घरिधरि मय्यो अनन्व बार११
अब काल-लब्धि-बलते दयाल | तुम दरशन पाय भयो खुशाल।
मन शान्तभयो मिटि सकल द्व'द । चारूयो स्वातमरस दुख-निरकंद १२
तार्ते अब ऐसी करहु नाथ | बिछुरें न कभी तुब चरण साथ |
तुम गुणगणको नर छव देब । जगतारनको तृव विरददब ॥१३॥ ,
श्मातमके अहित विषय कषाय । इनमें मेरी परिणति न जाय ।
मैं रहूँ आपमें आप जीन । स्रो करो द्वीउ' ज्यों निजाघीन ॥१४॥
मेरे न चाह कछु और इश | रत्नत्रय-निधि दोजे मुनीश ।
मुझ का रजके कारण सु आप। शिव करहु हरहु सम सोह-ताप १५
शशि शान्तिकरन तपहरन हेत । स्वयमेव तथा तम कुशल देव ।
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