धर्म सापेक्ष पंथ निरपेक्षता | Dharma Sapeksha Pantha Nirpeksha

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Dharma Sapeksha Pantha Nirpeksha by सोमनाथ शुक्ल - Somnath Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अंग्रें को क्षारण किये रहता है और इत्तलिए कर्म का कहा जाता है / भारतीय परपत में आवरण को धर्म का सकते महत्वपुर्ण अग गाना गा है, धर्म में विश्वास एवं विचार की बहुत खतंत्रता है / परन्तु, जब तक आप अपने धर्म का पालन करते है; या आप वह आचरण करते हैं नो आप का थ्षर्म है, तब तक आप सही रास्ते पर हैं / ः धर्म और ?िल्ीनन के अन्तर को हमें समझना चाहिए / ?िलीजन का संबंध कुछ विश्वित आस्थाओं से होता है / जब तक व्यक्ति उनको দাললা है वह ठस ितीगन या मृनृहक का सदस्य कना चता है / ज्यो ही वह उन आत्थाओं को छोड़ता है वह उस तितीजन ते बहिष्कृत लो नाता है / ध्म केवल आत्था्ों पर आश्षारित नहीं है / किसी क्षार्मिक त्थ में विश्वत न रखने गला व्यक्ति भी क्षर्गिक अर्थात्‌ सदुज॒णी हो सकता है । এন বন্তুলঃ जीने का तरीका है । वह आस्थषाओं ते अधिक जीने की श्रक्रिया पर आध्षारित है । धर्म के साध विशेषण जोड़ने की प्रिषाटी नयी है / धर्म न देश से बंका है, न कराल से / न वह ভি सम्रदाव विशेष तक ही सीमित है / धर्म जब किसी. सग्रदाव से जुड़ जाता है तब वह रिलीजन का रूप अहण कर लेता है / कर्म. णब सत्थागत धर्ग बर जाता है; तब वह रिलीजन हो जाता है / द विद्वानों ने धर्म के दो सूप किये हैं एक साग्रन्य मु दुद दशेष क्षर्ग! मूतुस्मृति में कर्म के जिन दस लक्षणो का उल्लेख है र्मु क्षण दया. अल्तेय ট্রভিনা, ইতি লিরউ, बुद्धि, विद्या, सत्य अहिंसा, इन सबका संबंध आचरण से हे / महाभारत के शतिक मे शी इस कत प्र व्ल देते ए कहा गया है क गुत॒ष्य सत्य बोले, दान दे; तप करे, कि हो; संतोष रखे, उसमें लोकलाज द्ये #्षयाशीलता हो, व्यवहार में सीक्षपन हो, ज्ानपूर्वक कार्य करे, शांति हो, दया हो; - ध्यान एकाग्र करने की शक्ति और प्रवत्ति हो /.. गह्मभ्ारत के अन्तर तपस्या के पृगण्ड छे रस्त ब्राह्मण को धर्म की शिक्षा ग्रहण करन कै लिए एक मात (करिता क पतत गत्र पड़ा ध / महारतः, দ ভী তুধিভং ন कहा था कि कौन ऊँचा है, क्रौन गीवा है इतका तियय केवल उसके शील से हो चकता है । द शतपथ ब्रह्मण मे का ग्रया है - धर्म शतक का शासक है, तथा धर्म में भर त्त निहित है । महाभारत में भरी इसका श्रकण मिलता है कि शतक ध्म के अक्षीन है / राज्वाभिेक के समय शसक को शपथ दिला जाती थी तथा उसे र्म का पालन कने ओर कभी स्वेच्छकारिता से कम न कने शरी प्रिन्ना करनी पडती शी । है वि लक रामायण के भरण्यकराड मे मुनिर ते शरी रमवन्र जी को उपदेक्ष देते हुए.




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