भारत के समाज और इतिहास पर स्फुट विचार | Bharat Ke Samaj Aur Itihas Par Sfut Vichar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्यक्तिघाद ९ (४) न्यक्तिवाद जहाँ कृषि ही जीविकाका प्रधान साधन है, और अन्य सब्र रोज़गार मी उसीमे सन्नद् है, वहाँ यद स्वाभाविक हैं कि भूमिके छोटे छोटे कड़े हौ जिसकी भिन्न मिन्न व्यक्ति या उनका कुद्धम्ब निर्जी सम्पत्तिकी तरह फिंकर करे । वैशनिर आविप्कारके द्वोते हुए भी कृपिप्रधान मतुष्य-समान बड़े बड़े गरोद्दोंमें मिलकर एक साथ काम नहीं करता। उसकी दृष्टि अपने ही तक सीमित रहती है, ब्रह अपनी निजकी स्वतन्नता- की बड़ी आकाद्टा रखता है और अपने इच्छानुसार और अपनी आब- कतां पर्यन्त शी कर्य करमा पसन्द करता है। अन्य व्यक्तियोंसि वह सामालिक सम्बन्ध अव्य स्सता है क्‍योंकि मनुष्य सामाजिक जन्तु है, बद एकाकी नहीं दी रह सकता । साथ ही साथ और छोगोंसे कुछ कुछ * आर्थिक सम्बन्ध भी उसका रद्दता ही है, पर अधिकतर वह खब्न व्यक्ति हं यना रहता है। अपनी सक्षा आदिके छिये भी লহ আসন হাঁ ऊपर निर्भर करता है. और यदि कोई राज प्रबन्ध हुआ तो उससे यथा संभव कम सम्बन्ध रुखनेकी বিছা करता है | छोकिक रूपमे ऐसे समाजमे व्यक्तिबाद हीं पैदा द्ोता है। कल-कारणानोंमें सघढित रूपसे कार्य करनेकी अद्ृत्ति इस कारण होती है कि वहाँ किसी कार्यफर्ताकें कार्यक्षेत्रका कोई भी अदा उषी निजी सम्पि मही होती ओर सवका समान दिति किसी माके पुरस्कार यात करना मात्र दोला द । यदौ कारण है कि ये ही लोग जो कृपककी दैसियतसे संब्रटन नहीं करते, मजदूरकी द्वैसियतसे ब़ें उत्सादने संधोम सम्मिलति दोते दै 1




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