श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण | Shreemadwalmikiy Ramayan

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Shreemadwalmikiy Ramayan by चंद्रशेखर शास्त्री - Chandrashekhar Sastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भदे सुन्दरकाण्डम्‌ दशयोजनबिस्तारो हनूभानभवत्तदा । चकार सुरसाप्यास्यं विशद्योजनमायतम्‌ ॥१५४॥ तदषषट व्यादिते सास्य वायुपुत्रःस बुद्धिमान) दीधेजिहं सुरसया सुभीपं नरकोपमम्‌ ॥९५५॥ स संक्षिप्यात्मनः कायं जीपूत इव मारुतिः । तस्पि्मुहूतं हनुमान्वमुवाङघ्मा्कः ॥१५६॥ सोऽभिषद्याथ तद्रक्रं निष्पत्य च महाबलः । अन्तरिक्षे स्थितः श्रीमानिदं वचनमत्रवीत ॥१५७॥ प्रविष्टोऽस्मि हिते वक्रं दाक्षायणि नमोऽस्तुते) गमिष्ये यज वैदेही सत्यश्चासीद्ररस्तव ॥*५८॥ तं दृष्टा बदनान्पुक्तं चन्द्र रहुमुखादिव । अन्रषीर्सुरसा देवी स्वेन रूपेण वानरम्‌ ॥१५.९॥ अर्थसिद्धये हरिश्रेष्ठ गच्छ सौम्य यथासुखम्‌) समानय च वैदेशं राप्रवेण महात्मना ॥९६०॥ तत्तृतीये हनुमता दृष्टा कम सुदुष्करम । साधुसाध्विति भूतानि परसष्ंघुस्तद हरिम्‌ ॥१६१॥ स सागरमनाधृप्यमभ्येत्य वरुणालयम्‌ । जगामाकाश्षमाविव्य वेगेन गरुडोपमः ॥*६२॥ सेविते वारिधाराः पतगौश्च निपेोषेते । चरिते कैौरिकाचायरेरावतनिषेविते ॥१६३। विहक्रुल्जरशटपतमोरगवाहनैः । विषानैः सेपतद्विश्च विमकैः समलंकृते ॥*६४॥ वज्ञाशनिसमस्पर्श! पवकरेरिविशोभिते । कृतपुण्येमहामागैः स्वर्गजिद्विराधिप्ठिते ॥१६५०॥ वहता ह्यमस्यन्तं सेविते चित्रमानुना । ग्रहनक्षजरचन्द्राकेतारागणवि भूषिते ॥९६६॥ पहर्पिंगणगन्धवैना गयक्षसमाकुले | विषिक्ते विमले विश्वे विश्वावसुनिषेविते |१६७॥ हनुमानकों देखकर सुरसाने बोस यो जनन अपना मुंह केलाया ॥ १५३॥ १५७ ॥ वुद्धि मान्‌ वायुपुत्र हयुमानने भयानक, लम्बी जीभवाला, फेला हुआ, नरकके समान सुरसाका मुंह देखकर अपने शररीरकों छोटा बना लिया। मेघके समान उसीक्षण हनमान अंगूठेके बराबर हो गए॥ १५५॥ १५४६॥ सुरसाके मुंहमें जाकर ओर बाहर निकलकर महाबली हनुमान झ्राकाशमे ठहरकर छुरसासे इस प्रकार बोले ॥ १५७ ॥ हे दाक्तायिणि, में तुम्हे नमस्कार करता हूँ। मेंने तुम्हारे मुंहम प्रवेश किया । में सीताके पास जाता हूँ । तुम्हारा चर भी सत्य हुआ ॥ श्प८॥ राहुके मुखसे निकले चन्द्रमाके समान, श्रपने मुंहसे उख वानरकों निऋले देखकर देवी सुरसा अ्रपना श्रसल्ी रूप भरकर बोली ॥ १५६ ॥ हे बागरथरष्ठ सोम्य ! कायंसिदधिके लिप सुखपुवंक जाश्रो ओर सीताको र।मचन्द्रसे मिलाश्रो ॥ १६० ॥ दनुमानका यदह तीसरा दुष्कर काम देखकर सब प्राणी साधु-साधु कहके उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १६१ ॥ अलंघ्य समुद्रके पास भाकर गण्डके समान वेगवान्‌ हनुमान पुनः आकाशम घुसखकर चलने लगे ॥१६२॥ उस मागमे जलधारा बहती है । पत्चिगणका वहां निवास है । विद्याधर वहां रहते है भोर इन्द्रक। ह{थी परावत मी रहता दै ॥१६३॥ सिंह, हांथी, बाघ, पक्षी, सर्प आदि वाहनवाले सुन्दर विमानोंसे वह स्थान शलंकत है ॥१६४॥ बज - के समान अग्नि वहां भज्वलित होती रहती है । अपने बलस स्वगं जोतनेवाले पुण्यात्मा महामाग वहां निवास करते रहते ह ॥ १६५ ॥ हविष्य पहंचानेवाले अग्निका वहां निवास हे । प्रह, नक्तत्र, चन्द्रमा, सूयं भौर ताराश्रोंसे बह स्थान विभूषित है ॥ शददे ॥ महषि, गन्धकं, नाग, यक्ष भादि- की बां भीड रहती है । उस पयित्र भौर विमल स्थानमें विस्वाव्जु नामक गन्धर्वराज निवास




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