प्रेम सुधा | Prem Sudha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
256
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गुणपूजा ११
यह आत्मभूत गुणों की बात हुईं । अब अनात्मभूत या
वैभाविक गुणों को लीजिए। जो गुण तो हो पर स्वाभाविक न
हो, अर्थात् किसी बाहरी प्रभाव से पेदा हुए हो, उन्हे बेभाविक
गुण कहते हैं । आत्मा में क्रोध, मान, साया, लोम, रागद्वेष,
सह, मट्सरता च्ादि सैभाविक उ, है । यह ज्ञान, दर्शन और
सुख की भोति आत्मा कै स्वभाव नही है; वरन् सोहनीय कमं
के उदय से पैदा होत है | आत्मा के शुद्ध स्वरूप में विकार
उत्पन्न करते है। यह आत्मा को अगुद्ग परिणति के नमूने है ।
इसी प्रकार एुदगल आदि द्वव्यों मे भी वेभाविक गुण समझ
लेने चाहिएँ ।
आत्मा जब अपने स्वाभाविक गुणों मे रमण करता है,
वैभाविक गुणों के प्रभाव से छुटकारा पा लेता है, तभी उसे
सच्ची शान्ति मित्रती है। सच पूछिए तो शखो मेजो भी
साधना ओर आराधना का विधान किया गया है, उसका एक-
मात्र प्रयोजन आत्मा के स्वाभाविक गुणो को प्राप्त कर लेना
ही है। यही समस्त शाखं का सार दै। यदी मनुष्य-मात्रका
परम कत्तव्य है । यही मानव-जीवन की सर्वोत्तम सफल्तता
है। जिसने अपने असली गुणों को पूर्ण रूप में प्राप्त कर लिया
वह साधक सिद्ध बन गया, वह आत्मा परसात्मा बन गया,
चह नर से नारायण बन गया, वह भक्त भगवान् बन गया।
उसकी साधना की सजिल पूरो होगई । वह कृत्तक्ृत्य हां गया।
उसके सभी मनोरथ पूरे हो गए।
शाखक्रारो ने वस्तु का वोध कराते के लिए अनेक उपायों
का भरवलम्बन लिया दै । नाना अकार से भेद-परभेद करके वस्तु
का स्वरूप हमारे लिए बोधगम्य बनाया है। में अभी-अभी
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