युगधर्म | Yugdharm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३ ) सुवणं का श्रंडा हेः गया, श्रौर उसमें खव लोकों का कत्ता ब्रह्मा स्वयं उत्यन्न हुए । जल के “नार कते हैं क्योंकि जल नर सूप परमात्मा से उन्न हुआ है। वही जल इस परमात्मा का प्रथम वासस्थान है, इस कारण परमात्मा को “नारायण” कहते हैं। लोक ओर वेद में प्रसिद्ध अब्यक्त (अथांत्‌ नेन्नादि इन्द्रियों ते अहण के अयोग्य/ नित्य ओर सत्‌ असत्‌ की श्ात्मा ऐसा करने से उततन्न हुआ, वह पुरुष “ब्रह्म” नाम से संसार में विख्यात हुए | उस भगवान्‌ ने अ्रण्डे में एक वधं तक्र रह कर आप ही अपने ध्यान से उसके दो टुकड़े कर दिये । उन दो टुकड़ों से स्वर्ग ओर प्रथ्वी को बनाया और बीच में आकाश, आठों दिशा और जल का स्थिर स्थान श्रर्थात्‌ समुद्र बनाया । फिर ब्रह्मा ने परमात्मा से सत्‌ असत्‌ (संकल्प विकल्प) रूप मन को और मनकी उत्पत्ति के पहिले “में? इस अभिमान से युक्त, काम करने में ভগ ऐसे अहंकार को उतनन्‍्न किया । फिर (अहंकार से पूर्व) आत्मा के सहायक महत्व को, फिर सब (सत्व, रज, तम) तीनों गुणों को, फिर धीरे-धीरे (रूप, रत, गंध आदि) विषयों को ग्रहण करनेवाले पांचों इन्द्रियों को उसन्‍न किया। इन अ्रसीम बलवाले (अहंकार, शब्द, रूप, रस, गंध, स्पश इन छुथ्रों) के छोटे-छोटे अवयवबों को उनके ही विकारों में (अर्थात्‌ तन्‍्मात्रा का विकार और आकाश आदि पंच महाभूत और श्रहंकार इनके विकारों को आपस में) मिलाकर सब प्राणियों को अर्थात्‌ मनुष्य, पशु, पक्षी और बृक्च इनको) रवा । उस (प्रकृति सहित बरह्म) की मृति के (शब्दादि तन्माचा श्रौर अहंकार) ये छर श्रवयब सूद्धम हैं और उसके आश्रित हैं (अर्थात्‌ पांचभूठ




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