धर्मशर्माभ्युदय | Dharmsharmabhyuday

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ घमशर्माम्युदय दिये हैं। धर्मशर्मास्युदयर्म पिताका नाम महासेन और माताका नाम सुत्रता बतलाया है जब कि उत्तर पुराणमें पिताका नाम भानु महाराज और माताका भाम सुप्रमा बतलाया है। उत्तरपुराणमें स्वयंवरका भी वर्णन नहीं है । घर्मशर्माम्युदयके कविने काव्यकी शोभा या सजावटके लिए उसे कल्पता दिल्पिनिभित क्या है । स्वयंवर यात्राके कारण कान्थके कितने ही अंगोका अच्छा वर्णय बन पडा है। मन्तमें समवसरण- कै मुनियोको जो संख्या दौ है उसमे भो जहा कहौ भेद मालूम पडता है । धर्मशर्माभ्युवयके कर्ता महाकबि हरिचन्द्र धर्मशर्माम्युदयके प्रत्येक सर्गके अन्तमे दिये हुए पुष्पिका वाक्यों तथा उद्नीसवें सर्गके ९८-९९ इलोकोंके द्वारा रचित षोडशदल कमलबन्धपे सूचित 'हरिचन्द्रकृत धर्मजिनपतिक्रितम्‌ पदसे एवं उसी खर्गके १०१-१०२ इलोकोंसे नि्तित चक्रवस्धसे निर्मत आउंदेयलसुतेनेद काव्य धर्मजिनोदयम्‌। रचित हरिफखेण परमं रसमम्दिरभ्‌' इस उतक्तिसे और उसी सर्मके १०३-१०४ इलोकॉसे मिमित चक्रबन्धसे निर्गत 'श्रीघसशमस्थुदयः हरिचस्त्रकांब्यमू' इस उल्लेखसे सिद्ध होता है कि इसके रचयिता भमहाकवि हरिचन्द्र हैं) यह हरिचन्द्र कौन हैं ? किसके पुत्र हैं ? इसका पता घर्मशर्माम्पुदगके अन्तमें प्रदत्त प्रशस्तिसे चलता है । यद्चपि यह प्रशस्ति छंभ्पादनके लिए प्राप्त सव प्रतियोंम नही है। “क' प्रति, जो कि संस्कृत टौकासे युक्त है उसमें भी यह प्रशस्ति नहीं है। इससे संशय होता है कि सम्भव है यह प्रशस्ति महाकवि हरिधन्द्रके द्वारा रचित न हो, पीछेमे किसोने जोड़ दी हो। किन्तु १५३५ संबतकी लिखी 'छ' प्रतिमें यह मिलती है इससे इतना तो फलित होता है कि यह प्रशस्ति यदि पीछेपे किस्तीोने जोड़ो भी हैं तो १५३५ संबतके पूर्ण ही जोड़ी है। इसके सिवाय अपने विता “आद्रदेव' का उल्लेख प्रन्यकर्ताने स्वयं ग्रन्थमे किया हो है । प्रशत्तिके इलोकोको भाधा, महाकविकी भाषासे मिलती-जुछती है अतः बहुत कुछ सम्भव यही है कि यह ग्रन्थकर्ताकी ही रचना हो । प्रशस्ति प्रन्थान्तमें द्रष्टव्य हैं । उक्त प्रनस्तिते विदिते होता है किं नोमकवेशके कायस्वकूलमे आरद्रदेवं नाभक एक प्रष्ठ पुरुषरत्न थे । उनकी पल्नीका नाम रथ्या था । महाकवि हेरिचन्द्र हन्हीके पुत्र थे। प्रशस्तिके पंचम द्लोकमे उपमालंका रके द्वारा इन्होंने अपने छोटे भाई लक््म्णका भी उल्लेख किया है। जिस प्रकार रामचन्द्रजी अपने भक्त और समर्थ छोटे भाई लक्ष्मणके द्वारा निर्व्याकुल हो समुद्रके पारको प्राप्त हुए थे उसी प्रकार महाकवि हरिचन्द्रजी मी अपने भक्त तथा समर्थ छोटे भाई लक्ष्मणक्े द्वारा! गृहस्थीके भारसे निर्याक्रुल हो शास्त्ररखूपी समुद्रके द्वितीय पारको प्राप्त हुए थे । कबिने यह तो लिखा है कि गुरुके प्रसादे उनकी वाणी निर्मछ हो गयी थी पर वे गुरु कौन है यह नहीं लिखा। प्रतिपाद्य पदार्थक्रि वर्णनसे विदित होता है कि यह दिगम्बर सम्प्रदायके अनुयायी थे । हरिचनद्र नामके, अनेक विद्वान्‌ कपू र्मंजरी' नाटिकामे महाकवि राजशेखरने प्र यम यवनिकाक्ते अनन्तर एकं जगह विदूषके द्वार हँरियर्द्र कविका उल्लेख किया है। एक हरिकत्द्रका उल्लेंख बाणमट्टने 'ओोहषंचरिंत' में किया है। एक हरिचन्द्र विश्वप्र काश कोषके कर्ता महेश्व रके पूर्वज चरक संहिताके टोकाकार खाहसांकमपतिके प्रधान वैच भी चे । पर इन सवका घर्मशर्मास्युदयकरे कर्ता हरिचनतद्रके साथ कोई एंकीमाव सिंद्ध नहीं होता | शर्वो धर्मशर्माम्युदथ के २१वें सर्गके जैनसिदधान्तक्ता जो वर्णन है कह यशस्विलकचम्पू मोर चन्द्रप्रमचरितसे १. विदूषकः ( ज्येव तत्कि न भण्यते, स्माकं बेटिका हरिचन्र-नंदिचन््र-कोटिशहार- प्रभुतीनामपि सुकविरिति ) २. पदबन्धोज्छ्वलो हरी कलवर्णक्रमस्थितिः । सट्टा रहरिचन्द्रस्य गधवस्धो नृषावते &




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