कसायपाहुंड - ५ | Kasaya Pahudam-5-

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Kasaya Pahudam-5- by पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastriपं. फूलचन्द्र शास्त्री - Pt. Phoolchandra Shastri

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फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) भाव- मोहनीय सामान्य श्रौर उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट, ्रनुषटृष्ट, जघन्य श्रौर श्रजघन्य अनुभाग- वालोका सर्यश्र श्रौदायिकं भाव दहै, क्योकि मो्टनीय कर्मे उद्यमे ही इनका बन्ध श्रादि सम्भव है । यद्यपि उपशान्तमोहमें मोहनीयके उदयके बिना भो इनका सत्र देखा जाता है पर चहां पर नवीन बन्ध होकर इनकी सत्ता नहीं होती, इसलिए स्वेत्र औदयिकभाव कहनेमें कोई दोष नहीं हे । सन्निकष - सोहनीयसामान्थकी अपेक्षा सह्षिकर्ष सम्भव नहीं हे । उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो मिध्यात्वका उ्कृष्ट अनुभागवाला जीव हे उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्तव होता भी है और नही भी होता, क्योकि अ्रनादि मिथ्यादृष्टिके ओर जिसने इनकी उद्धेलना कर दी है उसके इनका सरव नहीं होता, अन्यके होता है। यदि सत्त्व होता है तो नियमसे इनके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्ववाला होता है, क्योंकि यह सज़िकर्ष मिथ्यादृष्टिक ही सम्भव है श्रोर मिथ्यादृष्टिके सम्यक्व ओर सम्यग्मिथ्यात्वका मात्र उत्कृष्ट अनुभाग होता है । मिथ्यान्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीवके सोलह कपाय और नी नोकपायोंका नियमसे सत्य होता हे । शन्तु उसके इन प्रकृृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अजुत्कष अनुभाग भी होता है । यदि अनुन्क्ृ० अनुभाग होता है तो वह छह हानियोंमेंसे किसी एक हानिको लिए हुए होता है । कारण स्पष्ट हे। सोलह कपाय ओर नो नोकपायोंमेंसे एक एकको मुख्यकर इसीप्रकार सन्निकर्ष घटित कर लेना चाहिए। सम्यक्त्वक उत्कृष्ट अ्रनुभागवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग नियमसे होता है । मिथ्यात्व. वारह कपाय और नो नोकपायोंका उन्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अनुस्कृष्ट अनुभाग भी होता है । यदि अनुन्कृ्ट अनुभाग होता है हो वह छुह प्रकारकी हानिको लिए हुए होता है। इसके श्ननन्तानुवन्धीचतुष्कका स्व हाता भी हे और नहीं भो होता हे। यदि सस्व होता है तो उत्कृष्ट अनुभाग भी होता हे और अनुत्कृष्ट अनुभाग भी होता हे । यदि श्रजुस्कृष्ट अनुभाग होता है तो वह छुद्द प्रकारकी हानि क्लि हुए होता है । सम्यग्मिथ्यात्वकों मुख्यकर सम्यक्ल्वके समान ही सक्निकर्ष जानना चाहिए । सात्न सम्यग्सिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवालेके सम्यक्त्वका सत्त होनेका कोई नियम नहीं ऐ। कारण कि सम्यक्त्वकी उद्देलना सम्यस्मिथ्यात्वसे पहले हो जातो हैं। पर यदि उद्देलना नहीं हुई है तो नियमसे सम्यक्त्वका उन्कृष्ट अनुभाग ही पाया जाता है । मिथ्यात्वके जधन्य श्रनुभागवालके सम्यक्व और सम्यग्सिध्यात्वका सत्च होता भी हे और नहीं भो होता । यदि सम्यग्दष्टि जीव मिथ्यात्वकों प्राक्ष होकर और सूच्म निगोद अपर्याप्तम उत्पन्न होकर सम्यक्त्व ओर सम्धम्मिथ्वात्वकी उद्देलनाके पूर्व मिथ्यात्वके जधन्य अनुभागको प्राप्त होता टै तो उनका सत्व होता हैँ अन्यथा नहीं होता । यदि सर्व होता है तो नियमस श्रजवन्य श्रनुभागका ही सक्छ होता है जो अपने जपन्यसे अनन्तगुणा अविक होता हैं। इसके अनन्तानुवन्दीचतुष्क, चार संज्वलन और नो नोकपायोंका निश्रमसे सर्व होता हे जो अजथन्य श्रनन्तगुणा अधिक होताहे। कारण कि इनका जघन्द्र अनुभाग सूछ्म निगोद अ्रवर्याप्तक सम्भव नहीं हे । आठ कंपायोंका सख्व होता है जो जधन्य भी होता है ओर अजवन्य भी होता है। यदि श्रजवन्य होता हे तो नियमसे छह बृद्धियोंकों लिए हुए होता है । मिथ्यात्व ओर आठ कायोंके जयन्‍य अनुभागका स्वामी एक हे, इसलिए यहाँ ऐसा सम्भव है । आठ कपायोमिंसे प्रत्येक कपायको मुख्यकर सत्रिकप॑का कथन मिध्यात्वके समान ही करना चाहिए । सम्यक्त्वके जयन्य अनुभागवालेके बारह कपाय ओर नो नोकपायोंका अपने सखके साथ अजघन्य अनुभाग होता है जो अपने जधन्यकी श्रपेज्ञा अ्रनन्‍्तगुणा अधिक होता हे । इसके श्रन्य प्रकृतियोंका सत्व नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्वकी लरणाके अन्तिम समयमें उसका जधन्य अनुभाग होता हे, इसलिए उसके उक्त इक्कीस प्रकृतियोंका ही सत्व पाथा जाता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर् जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्खका भो सक्त्व होता है जो सम्यक्त्वका सत्तव अजघन्य अनन्तगुणे असुभागकों लिए हुए होता हे। श्रनन्तानुबन्धो क्रोधके जघन्य श्रनुभागवालेके




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