समयसार | Samaysaar

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Samaysaar  by पन्नालाल - Pannalal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ समयसार देवसेनके बाद ईसाकी बारहवी शताब्दोके विदान्‌ जयसेनाचार्यने मी पञ्चास्तिकायको टीकाके आरम्भ- में निम्नलिखित अवतरण-पुष्पिकामें कुन्दकुन्दस्थामीके विदेहगमनकी चर्चा को है-- 'अथ श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्ये. प्रसिद्धकथान्यायेन. पूव विदेह गत्वा बीतरागसवज्ञ- श्रीमद्रश्वामितीथकरपरमदेव दष्ट्वा तन्सुखकमकविनिगतदिम्यवागीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुदास्मतस्वादि- सारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागते श्रीमस्छन्दङुन्दाचायंदेवै पश्मनन्धायपरामिषेर्यं रन्तस्तरवबहिस्तस्वगौ गसुरुय- प्रतिपत्यर्थ अथवा शिवकुमारमहाराजादिसक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनाय॑ विरचिते पश्चास्तिकायप्राग्टतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारश्ुद्धिपूवंक तास्पर्यम्याख्यान कथ्यते ।' जो कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य थे, प्रसिद्ध कथाके अनुसार जिन्होने पूवं विदेहकषेत्र जाकर वीत- राग सर्वज्ञ श्नीमदरस्वामी तीर्थकर परमदेवके दर्शनकर तथा उनके मुखकमलसे विनिर्गत दिव्यध्वनिके श्रवणसे अवघारित पदार्थोमि शुद्ध आत्मसत्व आदि सारभूत अर्थको प्रहणकर जौ पुन वापिस आये थे तथा पद्मनन्दी आदि जिनके दूसरे नाम थे ऐसे श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवके द्वारा अन्तस्तत्त्वकी मुख्यरूपसे और बहिस्तत्वकी गौणरूपसे प्रतिपत्ति करानेके लिये अथवा शिवकुमार महाराज आदि सक्षेप रुचिवाले शिष्योको समझानेके लिये पञ्चास्तिकाय प्राभृत शास्त्र रचा 1 षटप्राभृतके सस्कृत टीकाकार श्रीक्षुतसागरसूरिने अपनी टीकाके अन्तमे भी कुन्दकुन्दस्वामीके विदेह- गमनका उल्लेख किया है-- 'श्रोपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचायवक्रप्रीवाचार्य छाचाय गृद्धपिच्छा चाय नामपञ्चक विरा जिते न चतुरजजुछा- कादागमनदधिना पूवविदेहपुण्डरीकिणोनगरवन्द्तिश्रीमन्धरापरनामस्वय प्रभ जिनेन ततश्रतक्ञानसम्बोधित- सरतवषभव्यजीवेन श्रोजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसवक्ष न विरचिते षट्प्राश्वतग्रन्थे--' “पद्मनन्दो, कुन्दकुन्दाचा्ये, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचा्यं ओर गृद्धपिच्छाचार्यं इन पाच नामोसे जो युक्त थे, चार अङ्क ऊपर आकाञ्गमनकी क्रद्धि जिन्हे प्राप्त थी, पूर्वेविदेहकषत्रके पुण्डरीकरिणी नगरमे जाकर श्रीमन्धर अपर नाम स्वयप्रभ जिनेन््रकी जिन्होने वन्दना की थौ, उनसे प्राप्त भ्रतज्ञानके द्वारा जिन्होने भरत- क्षेत्र, भव्यजोवोंकों सबोधित किया था, जो जिनचन्द्रसुरि भट्टारकके पट्टके आभूषणस्वरूप थे तथा कलि- कालके सर्वज्ञ थे, ऐसे कुन्दकुन्दाचार्यद्वारा विरचित षट्‌प्राभुत ग्रत्थमे -- उपयुक्त उल्लेखोसे साक्षात्‌ सर्वज्ञदेवकी वाणी सुबनेके कारण कुन्दकुन्दस्वामीकी अपूर्व महत्ता प्रख्या- पित की गई हैं । किन्तु कुन्दकुन्दस्वामोके प्रन्थोर्मे उनके स्वमुखसे कटी विदेहगमनकी चचा उपक्भ्ध नही होती । उन्होने समयप्राभृतके प्रारम्भमे सिद्धोकी बन्दनापू्वंक निम्न प्रतिज्ञा को है-- वदितु सखम्बसिद्धं धुवमश्रुमणोदम गह पतते । चोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीमभिय ॥ १ ॥ इसमें कहा गया है कि मैं श्वुतकेवलीके द्वारा भणित समयप्राभृतको कहगा । यदि सीमधर- स्वासीकी दिव्यध्वनि सुननेका धुयोग उन्हे प्रात होता तो उसका उल्लेश्न वे अवश्य करते। फिर भी देवसेन क्षादिके उल्लेख सर्वथा अकारण नही हो सकते ।




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