भोजपुरी लोकगाथा | Bhojpuri Lokgatha

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Bhojpuri Lokgatha  by सत्यव्रत सिन्हा - Satyavrat Sinha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका (क) लोकसाहित्य लोकसाहित्य वह लोकरंजनी साहित्य है ,जो स्वंताधारण समाज को मौलिक रूप में मावमय भ्रमिथ्यवित करता है। सृष्टि के विकास के साथ ही लोकसाहित्य का उद्भव माना गया हैं। इस प्रकार लोकसाहित्य मानव समाज के क्रमिक विकास को कहाती हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ। लोकसाहित्य, वर्तमान उन्नत एवं कलात्मक साहित्य का जनक है । भ्राज का संस्कृत एवं प्रिष्कृत साहित्य व्यक्तित को महत्ता को स्वीकार करता है, लोकसाहित्य जनता অনাহন को ही भपना श्रभु सानता हूँ । उसमें किसी का व्यक्तित्व नहीं अलतकता भ्रपितु उसमें समस्त समाज को धात्मा मुखरित होती है। इसी कारण लोकसाहित्य क स्गितामरं। भ्रथवा कवियों का कहदीं उल्लेख नहीं मिलता । पं० रामनरेश जिपाठी लिखते हूँ, “जिस तरह वेद प्रपोरुषेष माने जाते हूँ, उसी तरह ग्रामगीत भी अपौरुषेय हूँ ।' आरम्भ में पादचात्य-विचारकों ने लोकप्षाहित्य को तृशास्त्र (परन्प्रोपांतोजी) के भन्तगंत रहा था। उन्नीतवीं शताब्दी के भध्यान्त में लोकसाहित्य का अध्ययन इतना व्यापक हुआ कि उसे एक भलग विषम मात लिया गया । इसके पश्चात्‌ लोकसाहित्य के छानबीन का कार्य यूरप में धूम से प्रारम्भ हो गया। अनेक विद्वान एवं कवि इस भोर झाकषित हुए। लोकसाहित्य के विषय में पाश्चात्य विद्वानों का मत कुछ एकांगी-सा रहा है। प्रो० चाइल्ड, श्री किट रेज, सिजविक, गुमे र तथा लूसी पौंड प्रभृति विद्वानों ने लोकसाहित्य का अध्ययन अस्तुत करते हए इसे मनुष्य की भ्रादिम प्रवस्था की भ्रमिव्यक्ति समझा है तथा असंस्कृत समाज का एक विषय নানা हूँ। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप पाइचात्य देशों में 'लोकसंस्कृति', 'नोकसम्पता' इत्यादि ঘা का जन्म हुआ । 'लोक' (फोक) शब्द का भर्ष गावों अ्रथवा बनों में रहने बाले गवार तथा भ्रष॑सछृत समाज के सूप भें ्रयुनत होने लगा । पं रामनरेश त्रिपाठी-प्रामबाहित्य (जनपद पत्रिका, प्रषटूबर ॥ १९५२ १० १६) ।




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