ध्यानसूत्राणि प्रथमपुष्प | Dhyansutrani Prathampushp

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Dhyansutrani Prathampushp by टीकम चन्द जैन - Teekam Chand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अध्याय : रे 'पुरुष का कीमती हीरा रेत के ढेर में गिर जाता है तो वह पुरुष उस रेत के एक-एक कण को अलग-अलग कर अपने रत्नहीरा कोपा ही जाता ह अथवा भूतिकार पाषाण मे से टांचौ ढारा एक-एक अनुपयोगी पाषाण कौ निकालकर जिनबिम्ब कर निर्माण करता है ठीक उसी प्रकार मुष्तिराही। पथिक देह देवालय में विराजमान परम प्रभु परमात्मा को पाने के लिये व्याकुल हुआ समस्त विभावपरिणतियों को ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा भस्मीभृत करने के प्रयास|पुरुषाथ में प्रयास कर रहा है । पथिक ! चिन्तन में लीन हुआ ध्यान सूत्रों के आश्रय से आत्मानन्द- रस का पान कर रहा है । मुक्तिपथिक ! चारित्रमोहनीय कम के उदय से जो इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में प्रीति-अप्रीति रूप परिणाम होते हैं उनका नाम राग-ठ्वेष है । मेरी आत्मा परमाथं से, राग-हेष परिणति से रहित है। इष्ट में प्रीति अनिष्टसे देष करना मेरा स्वभाव नही है । ये विभावपरिणतियां ই। समार जीव के जहाँ राग है वहाँ द्वेष भी अवद्य है। आचार्यों ने कहा--' पर्यावें प्रतिपक्ष सहित है” “सपडिवक्खा पज्जाया |” पथिक । सको, चिन्तन करो । वास्तव मे संसार में कोई वस्तु न इष्ट है न अनिष्ट । जमी है वसी ही है । परन्तु अनुकूल में प्रीति व प्रतिकूल में अप्रीति से तुम समार मे फेस रहे हो । ग्रीष्म ऋतु मे ऊनी या मोटा वस्व देखते ही हेष/अरति करते हो जबकि शीत ऋतु आते ही मोटा ऊनी वस्त्र देखते ही हृदय से स्वर बालकवत्‌ चिपकाये रहते हो, क्या कपड़े ने अपना स्वभाव बदला है ? नहीं, अपनी रागद्वेष परिणति ने विचारों को अमित कर उलझन मे डाला है। अनादिकाल से ये विभावपरिणतियाँ तुम्हारे जीवन को कलकित कर रही है, पथिक ! राग-द्वेष से भिन्‍न वीतराग परिणति जीव का स्वभाव है, उसी की प्राप्ति करो, उसी का आश्रय करो-- जानो देखो बिंगड़ो मत” पदार्थ के ज्ञाता दुष्टा बनो, पर उसमे राम-हेष मत करो । वध्यते मुच्यते जीव निम॑म स मम क्रमात्‌ । तस्मात्सवंप्रयत्नेन निमंम इति चिन्तयेत्‌ ॥ --इष्टोपदेश पथिक ! परद्वव्य में यह मेरा है, यह राग बुद्धि ही बन्ध के लिये कारण है तथा परद्रव्य में यह मेरा नही है ऐसी विराग बुद्धि ही मुक्ति के लिये कारण है, इसलिये सव॑ प्रयल्त करके निर्मंध इसका चिन्तन करो । वीतरागता का आश्रय करो ।




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