आधुनिक हिंदी कविता की मुख्या प्रवृतियाँ | Adhunik Hindi Kavita Ki Mukhy Pravratiya
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)छायादाद १९
আল তং লিলি সালছু श्रमो হল সনিয়া सि इस घरार स्वछरद মাজাহ
अभिः्यकित नहीं पा सकतो थों॥ निदान ये प्रवचेतन_में उपर कर वहीँसे
अप्रत्यक्ष शय में स्थान होतो रहतो थों। और यह प्रत्र-्यक्ष रुप था नारी का
अशरीरो सॉन्दर्य झऋयवा अतोग्द्रिप शद्भार । छापायाद रा यह झतोनरिदिय शृद्धार
दो प्रकार मे ध्यश्त होता है। एक तौ प्रकृति के प्रतोको द्वारा प्रकृति पर नारो
भाव के भारोप द्वारा। दूसरे, नासे के श्ररोन्दिय सोन्दयं द्वारा ध्यात् उत्षके भन
ओर भ्रात्मा के भोन्दयं वौ प्रधानता देने ए उसके दारोर के भमामल चित्रण
द्वारा)
छापाबाद में গ্যাং के प्रति उपभोग फा भाव न मिल कर, विस्मय
को भाव मिसता है । इसलिये उसकी श्वनिनव्यदित स्पष्ट श्रौर भासल न होकर
धज्पनामय था मनोमप हैं । छापांवाद का कवि प्रेम को शरीर की भूस न समझ-
कर एक रहस्पमयों चेतता समभता है । मारो के प्रद्धो के प्रति उसका प्राकर्षए
नैतिक प्रातड्धू से सहम कर जैसे एक प्रस्पष्ट कौतूहल में परिएात हो गया है।
इसी बीनूहल मै छायावाद के क्वि श्रौर नारी के व्यक्तित्व के बीच प्रनेक रेशमी
भिलमिल पर्दे डाल दिए है: भोर दास्तव में छापावाद के फिलमिल काव्यबित्रों
का मूल उद्गम ये हो भिलमिल पर्दे हू। उसके वायदो रूर-रग का घेभव उन्हीं
से उत्कीएं होता है भौर इस्हीं पर आश्रित होने के कारण! छायाबाद की कांव्य-
सामप्री के झ्रधिकाद प्रतोक काम-प्ररोक हे ।
प्रकृति पर चेतना का आरोप
छायावाद में प्रकृति के चित्रो की प्रचुरता हैँ । कुछ दिद्वानो की तो নত
धारणा हूं. कि छायावाद का प्राए-तत्व हो प्रकृति का मानवीकरए पश्र्यात्
प्रकृति पर मातव-व्यक्तित्व का झारोप है । यह सत्प है कि छापराबाद में प्रहति
कौ निव स्ित्राधार भ्रथवा उद्दोप्त बातावरणु न मान बर ऐसो चेतन ससा
माना गया है जो भ्नादिकाल से मानव के साय स्परदनों का झादान-प्रदात करती
रही हैं। परन्तु फिर भो प्रद्ुति पर मानव-ध्यश्तित्व का पभ्रारोष छायावाद को
मूल प्रयृत्ति नहीं हैं, যী स्पष्टत. छायावाद प्रहति-काय्य महों हैं; भौर इसरा
प्रमाए यहू हूं हि छायवाइ में प्रति का चित्रण नहों है बरन् प्रकृति के स्पर्श
से मन में जो छाया-बित्र उठें उनझा चित्रण है १ जो ब्रदृत्ति प्रति पर मानव-
स्पक्तित्य छाए धारोरणु করে है वह कोई विशे३ प्रद॒त्ति श्ों हे; वह झठ को
बुब्डित वासना हो हूँ जो झजदेतन में पहुँद शर मूदत रूप घारए कर प्राहतिश
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