सर्व - मेघ - यज्ञ | Sarv Megh yagya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रण वरुण अभि प्रजापति इन्द वायु देवता हैं। इदं में इस मंत्रका अनुष्टुप्‌ छंद और मंत्रोक्तदेव देवता हैं । श्री-कामः धनकी इच्छा करनेवाछा देवोंसे श्री अथात्‌ घन आदिकी याचना करता है । इस सवाजुक्रम सृच्रको देखनेसे ऐसा भाव प्रतीत होता है कि मेघाकी इच्छा करनेवाला ओर श्री की इच्छा करनेवाला मनुष्य इन मंत्रों से मेघा ओर श्रीकी याचना करे न कि इन मंत्रोंके मेघाकाम और श्रीकाम ये ऋषि हैं । पूर्वक्त दातपथ ब्राह्मणके वचनके अनुसार स्वयं भुबद्मके तपसे इस सर्वमेघ-यज्ञकी तथा इस सर्वेमेघ अध्यायकी उत्पत्ति है । इस लिये संपूर्ण अध्याय स्वयंभु बह्मका देखा हुआ है । अर्थात्‌ संपूर्ण अध्यायका ऋषि स्वयंभु ब्रह्म है । सर्वानुक्रमणी और अजमेर यजुर्वेदकी तुलना निश्न कोष्टकसे हो सकती हैः-- मंत्र. |... यज्ञ० सवौलुकम . |... अजमेर यजुर्वेद थी | ऋषि. |. देवता | ऋषि. |. देवता _ १३ सद्सस्पति | स्वयंभुन्रह्म | सद्सस्पतिः मेघाकामः इन्द्रः सन हिरण्यगभ १४ यां मेघां देव का अभि कम चरुण-अधि- श्र १५ मेघां मे वरु० कि बन का पे . इन्द-वायु व १६ इदं में बह्म।.. देवा _श्रीकामः. | विद्रद्वाजानों ऋषिके विषयमें धतपथ ओर सवोनुक्रम की एक संमति होनेसे सर्वानुक्रमका कहना सत्य प्रतीत होता है । देवताओंके विषयमं भी सर्वानुक्रमका कहना इसलिये सत्य प्रतीत होता है कि मंत्रों में येदी देव- ताओंके नाम आये हैं । मं. १६ इदं मे ्रह्म के विद्वद्वाजानो ये देव- ताएं अजमेरके पुस्तकमें दीं हैं । मंत्रके ब्रह्म ओर क्षत्र शब्दोंसे ये देव- ताएं मार्नी गयीं हैं ऐसा प्रतीत होता है । परंतु देवता उसको कहते हैं कि जो देनेवाली होती है । देवो दानात ऐसा निरुक्तका कथन है । इस मंत्रमें न्रह्मक्षत्र ये दोनों श्री लेनेवाले हैं जार देवा श्री देनेवाले अर्थात्‌ दाता हैं । याचक देव नहीं होते । इस कारण मंत्रोक्त देवा हि




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