सुबह कुछ शाम कुछ | Subah Kuch Shaam Kuch

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Subah Kuch Shaam Kuch by विजय अग्रवाल - Vijay Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक प्रश्न तुमसे फूल जुभने लगें यदि काटे बन जाये हो निकाल फेकना चाहिए उ् यहीं तो होता रहा द आज तक ! ख़िले हुए, गुलमोहर के नीचे, बैठा था मे चुपचाप: चेर लिया अचानक यवूल के बड़े बड़े काँटों ने मुझे चारों ओर से। सुबह कुछ « शर्म सुर




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