ज्यूं था त्यूं ठहराया | Jyun Tha Tyun Thahraya
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1.7 MB
कुल पष्ठ :
255
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ज्यों था त्यों ठहराया स्वभाव मे थिरता पहला प्रश्न भगवान आज प्रारंभ होने वाली प्रचनमाला को जो शीर्षक मिला है वह बहुत अनूठा और बेबूझ है--ज्यूं था त्यूं ठहराया। भगवान हमैं इस सूत्र का अर्थ समझाने की अनुकंपा करें। आनंद मैत्रेय! यह सूत्र निश्चय ही अनूठा है और बेबूझ है। इस सूत्र मैं धर्म का सारा सार आ गया है--सारे शास्त्रों का निचोड़। इस सूत्र के बाहर कुछ बचता नहीं। इस सूत्र को समझा तो सब समझा। इस सूत्र को जीया तो सब जीया। सूत्र का अर्थ होता है जिसे पकड़ कर हम परमात्मा तक पहुंच जाएं। ऐसा ही यह सूत्र है। सूत्र के अर्थ मैं ही सूत्र है। सेतु बन सकता है--परमात्मा सै जोड़ने वाला। यूं तो पतला है बहुत धागे की तरह लेकिन प्रैम का धागा कितना ही पतला हो पर्याप्त है। ज्यूं था त्यूं ठहराया! मनुष्य स्वभाव से परमात्मा है लेकिन स्वभाव से भटक गया। वह भटकाव भी अपरिहार्य था। बिना क्षटक के पता ही नहीं चलता कि स्वभाव क्या है। जैसे मछली को जब तक कोई पानी से बाहर न निकाल ले तब तक उसे याद भी नही आती कि क्या है पानी का राज कि पानी जीवन है। यह तो जव मछली तट की रेत पर तहफती है तभी अनुभव मैं आता है। सागर मैं ही रही सागर मैं ही बड़ी हुई तो सागर का बोध असंभव है। भटके बिना बोध नहीं होता। भटके बिना बुदधत्व नहीं होता। इसलिए अपरिहार्य है भटकाव लैकिन फिर भटकते ही नहीं रहना है! अनुभव म आ गया कि सागर है जीवन तो फिर सागर की तलाश करनी है। धूप मैं तस रेत पर तड़फते ही नहीं रहना है।
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