बहुतेरे हैं घाट | Bahutere Hain Ghat
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
499 KB
कुल पष्ठ :
73
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बहुतेरे हैं घाट पहला प्रश्न भगवान आज आपके संबोधि दिवस उत्सव पर एक नयी प्रवचनमाला प्रारंभ हो रही है बहुतेरे हैं घाट। भगवान संत पलदू के इस सूत्र को हमें समझाने की अनुकंपा करें जैसे नदी एक है बहुतेरे हैं घाट। आनंद दिव्या मनुष्य का मन मनुष्य के भीतर भैद का सूज है। जब तक मन है तब तक भेद है। मन एक नहीं अनेक है। मन के पार गए कि अनेक के पार गए। जैसे ही मन छूटा विचार छूटे वैसे ही भेद गया दैत गया दई गई दुविधा गई। फिर जो शेष रह जाता है वह अभिव्यक्ति योग्य भी नहीं है। क्योंकि अभिव्यक्ति भी विचार में करनी होगी। विचार में आते ही फिर खंडित हो जाएगा। मन के पार अखंड का साम्राज्य है। मन के पार मैं नहीं है तू नहीं है। मन के पार हिंदू नहीं है मुसलमान नहीं है ईसाई नही है। मन के पार अमृत है भगवत्ता है सत्य है। ओर उसका स्वाद एक है। फिर कैसे कोई उस अ-मनी दशा तक पहुंचता है यह बात और। जितने मन हैं उतने मार्ग हो सकते हैं। क्योंकि जो जहां है वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। और इसलिए हर याजा अलग होगी। बुद्ध अपने ठंग से पटू्चगे महावीर अपने ढंग से पहुंचेंगे जीसस अपने ढंग से जरथुस्त्र अपने ढंग से। लेकिन यह टंग यह शैली यह रास्ता तो छूट जाएगा मंजिल के आ जाने पर। रास्ते तो वहीँ तक हैं जब तक मंजिल नहीं आ गई। सीदियां वहीं तक हैं जब तक मंदिर का द्वार नहीं आ गया। और जैसे ही मंजिल आती है रास्ता भी मिट जाता है राहगीर भी मिट जाता है। न पथ है वहाँ न पथिक है वहाँ। जैसे नदी सागर मैं खो जाए। यूं खोती नहीं यूं सागर हो जाती है। एक तरफ सै खोती है--नदी की शांति खो जाती है। और यह अच्छा है कि नदी की भांति खो जाए। नदी सीमित है बंधी है किनारों मैं आबद्ध है। दूसरी तरफ से नदी सागर हो जाती है। यह बड़ी उपलब्धि है। खोया कुछ भी नहीं या खोईं केवल जंजीरें खोया केवल कारागृह खोई सीमा और पाया असीम! दांव पर तो कुछ भी न लगाया और मिल गई सारी संपदा जीवन की सत्य की मिल गया. सारा सामाज्य। नदी खोकर सागर हो जाती है। मगर खोकर ही सागर होती है। और हर नदी अलग टंग से
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