सम्बोधि के क्षण | Sambodhi Ke Kshan
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical, धार्मिक / Religious

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
733 KB
कुल पष्ठ :
94
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)संबोधि के क्षण मैं अकैला गाता रहूंगा मेरे प्रिय आत्मन बहुत सै प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मनुष्य को किसी न किसी प्रकार डिसीप्लीन अनुशासन की जरूरत है। जरूरत हैं--अनुशासन की जरूरत है। लेकिन वैसे अनुशासन की नहीं जैसा आज तक रहा है। अनुशासन दो प्रकार का है। एक तो वह जो बाहर से थोप दिया गया है ओर दूसरा वह जो स्वयं के भीतर से आया है। अब तक हमने यही किया है कि सव डिसीप्लीन सव अनुशासन ऊपर से थोपने की कोशिश की है। ऊपर से हमने सिखाया है आदमी को किया क्या करना है ओर क्या नही करना है! उस आदमी को दिखाई नही पड रहा है कि जो करना है वह करने योग्य है जो नहीं करना है वह नहीं करने योग्य है। हमने सिर्फ ऊपर सै नियम बिठा लिए हैं। उन नियमों के दोहरे दुष्परिणाम हुए हैं। एक तो उन नियमों के कारण व्यक्ति का अपना विवेक विकसित नरह हो सकता है ओर दूसरा ऊपर सै थोपे गए नियम मनुष्य के भीतर विद्रोह पैदा करते है। व्यक्ति जितना बुद्धिमान होगा उतना स्वयं के ठंग से जीना चाहेगा। सिर्फ बुद्धिहीन व्यक्ति पर ऊपर से थोप गए नियम प्रतिक्रिया रिएक्शन पैदा नहीं करेंगे। तो दुनिया जितनी बुद्धिहीन थी उतनी ऊपर से थोपै गए नियमों के खिलाफ बगावत न थी। जब दुनिया बुद्धिमान होती चली जा रही है बगावत शुरू हो गयी है। सब तरफ नियम तोड़े जा रहे हैं। मनुष्य बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है।
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