वाराणसी | Varanasi
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
348 Kb
कुल पष्ठ :
34
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वाराणसी ओशो का प्रथम प्रवचन राजघाट बसंत कॉलेज वाराणसी 12 अगस्त 1968 मेर प्रिय आत्मन् एक छोटी-सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। एक महानगरी में एक नया मंदिर बन रहा था। हजारों श्रमिक उस मंदिर को बनाने में संलग्न थे पत्थर तोड़े जा रहे थे मूर्तियां गढ़ी जा रही थीं दीवालें उठ रही थीं एक परदेशी व्यक्ति उस मंदिर के पास से गुजर रहा था। पत्थर तोड़ रहे एक मजदूर से उसने पूछा मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से अपनी हथौड़ी नीचे पटक दी आंखें ऊपर उठाई] जैसे उन आंखों में आग की लपटें हों ऐसे उस मजदूर ने उस अजनबी को देखा और कहा--अंधे हैं दिखाई नहीं पड़ता है पत्थर तोड़ रहा हूं। यह भी पूछने और बताने की जरूरत है और वापस उसने पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। वह अजनबी तो बहुत हैरान हुआ। ऐसी तो कोई बात उसने नहीं पी धी कि इतने क्रोध से उत्तर मिले वह आगे बढ़ा और उसने मशगूल दूसरे मजदूर से वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था उससे भी उसने यही पृछा कि मेरे मित्र क्या कर रहे हो जैसे उस मजदूर ने सुना ही न हों बहुत देर बाद उसने आंखें ऊपर उठाई] सुस्त और उदास हारी हुई आंखें जिनमें कोई ज्योति न हो जिनमें कोई भाव न हों और उसने कहा कि क्या कर रहा हूं बच्चों के लिए पत्नी के लिए रोजी-रोटी कमा रहा हूं। उतनी ही उदासी और सुस्ती से उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। वह अजनबी आगे बढ़ा और उसने तीसरे मजदूर से पूछा वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था। लेकिन वह पत्थर भी तोड़ता था और साथ में गीत भी गुनगुनाता था। उसने उस मजदूर से पूछा मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने आंखें ऊपर उठाई] जैसे उन आंखों में फूल झड़ रहे हों खुशी से आनंद से भरी हुई आंखों से उसने उस अजनबी को देखा और कहा--देखने नहीं भगवान का मंदिर बना रहा हूँ। उसने फिर गीत गाना शुरू कर दिया और पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। वे तीनों व्यक्ति ही पत्थर तोड़ रहे थे वे तीनों व्यक्ति ही एक ही काम में संलग्न थे लेकिन एक क्रोध से तोड़ रहा था एक उदासी से तोड़ रहा था एक आनंद के भाव से। जो क्रोध से तोड़ रहा था उसके लिए पत्थर तोड़ना सिर्फ पत्थर तोड़ना था और निश्चय ही पत्थर तोड़ना कोई आनंद की कोई अहोभाग्य की बात नहीं हो सकती और जो पत्थर तोड़ रहा था स्वभावतः सारे जगत के प्रति क्रोध से भर गया हो तो आश्चर्य नहीं जिसे जीवन में पत्थर ही तोड़ना पड़ता है वह जीवन के प्रति धन्यता का कृतज्ञता का भाव कैसे प्रकट कर सकता है। दूसरा व्यक्ति भी पत्थर तोड़ रहा था। लेकिन उदास था हारा हुआ था। जो जीवन को केवल
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