काल के पंख | Kaal Ke Pankh

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Kaal Ke Pankh by आनन्दप्रकाश जैन -Aanandprakash Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सैल्यूकसकी बेटी १५ “कहो, रानी,” चन्द्रगुमने चादर उतारकर परिचारिकाके हाथमें देते हुए. कहा, “यूनानी पुष्प कैसा छगा ?? “ऐसा कि उसके आनेसे यहाँकी सारी वाटिकाके फूल खिलखिला कर हँस रहे है”, रानीने ए्लेषमे कहा | “खिलखिला कर हँस रहे है! अर्थात्‌ यूनानी पुष्प सभीको बहुत अबिक भाया है १” “इतना अधिक कि हँसते हँसते सभी पुष्पोंकी पखडिया झडी जा रही हैं ।” “ओह | पखडिया झंडी जा रही है! परन्तु यह श्लेष हम नहीं समके | ভুল कोई गमीर बात कटना चाहती दो, रानी £ (गभीर तो अब कुछ भी नहीं रहा | ऐसा लगता है कि या तो वह मूख हे ओर सारा रनिवास उसके साथ मूर्खं बन गया है | या फिर वह बुद्धिमती है ओर हम सब जन्मजात जड हैं |!” “अर्थात्‌ ”” चद्धगुमने आश्चरययसे पूछा | “अर्थात्‌ यह कि राजमहलकी प्रत्येक मर्यादा भग हो रही है| किसीको सम्यता, शाखीनता, नीति-नियमका ध्यान नहीं ] रानियोँ ओर दासिर्यो एक ही पक्तिस खडी होकर हास्यात्यप कर रही है और वह यूनानी छोकरी समभती है कि वह सैल्यूकस सेनापतिकी बेटी नहीं है, ससारके विधाता की वेटी है ।”” “ओह । मालूम होता है मामला अनुमानसे मी अधिक गभीर है ? चन्द गुने कहा । फिर उसने देलेनकी समी हरकतोका पूरा चिट्टा युना । सुनकर हँसते हुए कहा, “सुनो, रानी, तुम समवतः नहीं जानती कि हमने यद्‌ राजनीतिक विवाह किया है } शने हमसे मैनी स्थापित करनेके लिए इमारे गक्तसे अपने रक्तका सचध जोडना चाहा और राजनीतिक दृष्टिसे हम इनकार नहीं कर सके । अन्यथा उस यूनानी राजकन्यासे हमे कोई मोह नहीं था | तुम जानती हो ठुम हमें सबसे प्रिय हो। उसके साथ हमारा




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