मोक्षशास्त्र प्रवचन भाग १, २ | Moksha Shastra Par Pravachan (vol. - I, Ii)
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
658
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूष {~ ११
तिरगा फडा २५ ती्थकये द्वारा प्रहूपित, प्रदर्शित आत्माके रत्तत्रय-घर्मकों या कहिये
मोक्षमार्भको स्मरण कराता है। हमको उस मोक्षमा्गमे अपना पुरुषार्थे प्रकट करना `
चाहिये । इस भवसे नहीं तो अगले भवोसे हम मोक्ष पानेके अधिकारी हौ ,जावे। मनुष्य
जीवनमे यहु सबसे वडा काम है ।
आ्रात्मपौरुष करनेका स्मरणशः--कोई कहे कि इस कालमे तो मोक्ष होता नहीं है,
फिर उसके लिये प्रयत्न क्यो किया जाय ? तो उत्तर है कि भाई ,! यदि तुमे मोक्षको
चाह है तो उस मामे लग जाना ही एक तेरा कतंव्य है । अब नहीं तो तब, मोक्ष होकर
ही रहेगा | यदि तुझे आज ही कुछ दिनो সা নঘাঁদ सोक्ष मिले, तभी तू उसके लिये
प्रयत्न करेगा, नही तो नही, तो यह तेरी आत्मवचना है, वहाना है । तू आत्मकतेंव्यसे
पीछे हटनेके लिये भूठी दलील चलाना चाहता है और फिर यह भी तो सोच कि “बड़े बडे
महापुरुषोको भी सम्यग्दशैनकी प्राप्तिके बाद मोक्ष पा लेनेमे कितना समय लगा है ?
सभी जीवोको तो अतम ह॒तेने मो नही हो जाता' अ्ररवों-खरबो वर्ष तक इसकी साधनासे
बीत जाते ह । ऋषभदेव भगवानको कुच कम १ लाख पूवं श्र्थात् हजारो अरब वर्ष জবা.
स्यात् तो उनसे जल्दी भी जा सकता । यहासे मरकर विददेहमे उत्पत्त होकर तो
८-६ वर्षेमे हो सिद्ध बन सकता है| हा, कमी यह है कि मरते समय हमारे सम्यक्त्व '
रहे तो विदेहमे नहीं पँदा हो सकते । उस विदेहवी भी चिन्ता हटावो । सम्यक्त्वका -
वियोग मत होझो तू भव को मत देख । देख भव रहित निज चत्तन््य स्वभावकों, आत्म -
सतोष और धघेर्यपूर्वेंक मोक्षपथमे चलते रहनेके लिये ज्ञान्वृत्ति रूप उद्यम कर, तू भवको,
मत देख । यदि स्वभाववी ओर उपयोग हो तो तुमही बतावों क्या भवका उपयोग रहता ,
है ? स्वभाव तो शुद्ध अशुद्ध सभी पर्यायोसे विलक्षण एक केवन शुद्ध रहै । स्वभावमे भव+
कहा हैँ ? देखो-देखो, स्वभावमे बडी महिमा है तमी तो इसके ्राश्चरयसे इसका धनी महान्
बन जाता ই। स्वभाव ऋखड है तभी तो अ्रखडके आश्रय से अन्तमे ज्ञान तचिलोक, त्रिकाल- ।
वर्ता समस्त पदार्थोका खड ज्ञाता हो जाता है । स्वभाव {्विवल्पहै तभी तो स्वभावके
आश्रयसे इसका धनी रिविक्ल्प हो जाता है | स्वभाव अवि-ाशी है तभी ठो- इसके
आश्रयसे इसका धत्ती विषम पर्याय के अभाव रूप अ्विचाशी एक रूमान ५र्यायोके,
अविनदबर प्रवाह रूप अविनाणी पदको प्रकट कर लेता हैं। अहो ! बडे बडे योगीद्धोने
भी मात्र एक आत्मस्वभावकी उपासना की । यह बात तो बिल्कुल पूर्ण प्रकट है,
साईं समे उत्तीर्ण नि सदेह बात' है । मित्रो | एक इस ही ज्ञानस्वभाव का, » तन्यस्वभावका
आश्रय लो, फिर मुक्ति हस्तगत ही है। भले ही कुछ समय और लग जावे, परन्तु विचारों,
तो सही, श्रलन्तानन्त कालके सामने अरूख्यात भी समय क्या चीज है ? রী - ७ ५
(+
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