मोक्षशास्त्र प्रवचन भाग १, २ | Moksha Shastra Par Pravachan (vol. - I, Ii)

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Moksha Shastra Par Pravachan (vol. - I, Ii) by सुमेरचंद जैन - Sumerchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूष {~ ११ तिरगा फडा २५ ती्थकये द्वारा प्रहूपित, प्रदर्शित आत्माके रत्तत्रय-घर्मकों या कहिये मोक्षमार्भको स्मरण कराता है। हमको उस मोक्षमा्गमे अपना पुरुषार्थे प्रकट करना ` चाहिये । इस भवसे नहीं तो अगले भवोसे हम मोक्ष पानेके अधिकारी हौ ,जावे। मनुष्य जीवनमे यहु सबसे वडा काम है । आ्रात्मपौरुष करनेका स्मरणशः--कोई कहे कि इस कालमे तो मोक्ष होता नहीं है, फिर उसके लिये प्रयत्न क्यो किया जाय ? तो उत्तर है कि भाई ,! यदि तुमे मोक्षको चाह है तो उस मामे लग जाना ही एक तेरा कतंव्य है । अब नहीं तो तब, मोक्ष होकर ही रहेगा | यदि तुझे आज ही कुछ दिनो সা নঘাঁদ सोक्ष मिले, तभी तू उसके लिये प्रयत्न करेगा, नही तो नही, तो यह तेरी आत्मवचना है, वहाना है । तू आत्मकतेंव्यसे पीछे हटनेके लिये भूठी दलील चलाना चाहता है और फिर यह भी तो सोच कि “बड़े बडे महापुरुषोको भी सम्यग्दशैनकी प्राप्तिके बाद मोक्ष पा लेनेमे कितना समय लगा है ? सभी जीवोको तो अतम ह॒तेने मो नही हो जाता' अ्ररवों-खरबो वर्ष तक इसकी साधनासे बीत जाते ह । ऋषभदेव भगवानको कुच कम १ लाख पूवं श्र्थात्‌ हजारो अरब वर्ष জবা. स्यात्‌ तो उनसे जल्दी भी जा सकता । यहासे मरकर विददेहमे उत्पत्त होकर तो ८-६ वर्षेमे हो सिद्ध बन सकता है| हा, कमी यह है कि मरते समय हमारे सम्यक्त्व ' रहे तो विदेहमे नहीं पँदा हो सकते । उस विदेहवी भी चिन्ता हटावो । सम्यक्त्वका - वियोग मत होझो तू भव को मत देख । देख भव रहित निज चत्तन्‍्य स्वभावकों, आत्म - सतोष और धघेर्यपूर्वेंक मोक्षपथमे चलते रहनेके लिये ज्ञान्वृत्ति रूप उद्यम कर, तू भवको, मत देख । यदि स्वभाववी ओर उपयोग हो तो तुमही बतावों क्या भवका उपयोग रहता , है ? स्वभाव तो शुद्ध अशुद्ध सभी पर्यायोसे विलक्षण एक केवन शुद्ध रहै । स्वभावमे भव+ कहा हैँ ? देखो-देखो, स्वभावमे बडी महिमा है तमी तो इसके ्राश्चरयसे इसका धनी महान्‌ बन जाता ই। स्वभाव ऋखड है तभी तो अ्रखडके आश्रय से अन्तमे ज्ञान तचिलोक, त्रिकाल- । वर्ता समस्त पदार्थोका खड ज्ञाता हो जाता है । स्वभाव {्विवल्पहै तभी तो स्वभावके आश्रयसे इसका धनी रिविक्ल्प हो जाता है | स्वभाव अवि-ाशी है तभी ठो- इसके आश्रयसे इसका धत्ती विषम पर्याय के अभाव रूप अ्विचाशी एक रूमान ५र्यायोके, अविनदबर प्रवाह रूप अविनाणी पदको प्रकट कर लेता हैं। अहो ! बडे बडे योगीद्धोने भी मात्र एक आत्मस्वभावकी उपासना की । यह बात तो बिल्कुल पूर्ण प्रकट है, साईं समे उत्तीर्ण नि सदेह बात' है । मित्रो | एक इस ही ज्ञानस्वभाव का, » तन्यस्वभावका आश्रय लो, फिर मुक्ति हस्तगत ही है। भले ही कुछ समय और लग जावे, परन्तु विचारों, तो सही, श्रलन्तानन्त कालके सामने अरूख्यात भी समय क्‍या चीज है ? রী - ७ ५ (+




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