ज्ञानबिन्दुप्रकरणम् | Gyanbinduprakaranam

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Gyanbinduprakaranam by राजेन्द्र सिंह - Rajendra Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ . : ` . सपादकाय वक्‍्तठथ्‌ ... 7 प्रारभ आर पयेवंसान- | ৮ ६५ स० १९१४ में-जब में महेसाणा- (गुजरात-)में कुछ साधुओं को पढ़ाता था तब -मेरा ध्यान अस्तुत: ज्ञानविन्दु की ओर. विशेष रूप: से गया | उस समय मेरे सामने जैनधर्मप्रसारकः सभा, भावनगर की ओरे से प्रकाशित 'न्यायाचाय श्रीयशोविजयजीकृत ग्रन्थमाला! अन्ततः पत्राकार ज्ञानविन्दु था -। ज्ञानबिन्दु की विचारसक्ष्मता और दाशैनिकता देख कर मन में हुआ कि यह ग्रन्थ पाठ्यक्रम में आनें योग्य है । पर इस के उपयुक्त संस्करण की भी जरूरत है ।. यह मंनोगत संस्कार वर्षों तक यीं ही मनमे पड़ा रहा और समय समय पर मुझे प्रेरित मीः करता. रहा.। अन्त में ई० स० १८३५ -में अमर्ी काये का प्रारंभ हुआ | इस की दो अ और ब- संज्ञक लिखित प्रतियाँ विद्वान मुनिवर श्रीं पुण्यविजयजी के भनुम्रह से प्राप्त हुईं । और काशी में १९३५के ऑगस्ट में, जंब कि पिंघी' जनग्रन्थ माला के संपादक श्रीमान्‌ जिनविजयजी शान्ति- निक्रेतन से छौटते हुए पघारे, तव उनकी मदद से उक्त दो लिखित और एक मुद्वित कुल तीन प्रतियों का मिंछान कर कें पाठान्तर लिख लिए गए। ई० स० १९३६ के जाड़े में कुछ काम आंगे बढ़ा । प्रन्थकारने ज्ञानबिन्दु में जिन ग्रन्थों का नाम निर्देश किया है या उद्धरण . दिया है तथा जिन ग्रन्थों के परिशीलन से उन्होंने ज्ञानविन्दु को रचा है उन सव के मूल स्थछ एकत्र करने का काम, कुछ हृद तक, पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचाय के द्वारा उस समय संपन्न हुआ । इस के बाद ई० स० १९३७ तक में, जब जब समय मिला तब तब, अधम लिए गए पाठान्तर और. एकन्न्‌ किए गए ग्रन्थों के अवतरणों के आधोर पर, पांठशुद्धि का तथा विषय विंभाग शीर्षक आदि का काम होता. रहा । साथ में अन्य लेखन, संपादन और अध्यापन.- भादि के काम उस समय इतने अधिक थे कि ज्ञानविन्दु का शेप काये यों ही रह गया ३० स० १९३८ के पुनर्जन्म के वाद, जव मँ फिर काशी आया तव पुराने अन्यान्य अधूरे कामो कौ समाप्त करने के बाद ज्ञानविन्दु को ही मुख्य रूपसे हाथ में लिया । मुक तैयारी तो हुई थी- पर हमारे सामने सवाल था संस्करण के रूप को निश्चित करने का। कुछ मित्र बहुत दिनों से कहते आए थे. कि ज्ञानविन्दु के ऊपर संस्कृत टीका मी-होनी चाहिए | कुछ का विचार था कि अजुवाद होना जरूरी है। टिप्पण के बारे में मी प्रश्न था कि वे किस प्रकार के लिखे जाँय:। क्या प्रमाणमीमांसा के ठिप्पणों की तरह हिन्दी में मुख्यतवा लिखे जय या संस्कृत में ?। इन सब प्रश्नों को सामने रख कर अन्त में. हमने समय की मयादा तथा सामग्री का विचार कर के स्थिर किया कि अमी अनुवाद या संस्कृत टीका के लिए जरूरी अवकाश न होने से वह নী. स्थगित किया जाय | हिन्दी तुल्वात्मक विप्पण अगर लिखते तो संमव है दि; यह्द प्रन्थ अमी प्रेसमें सी. न जाता 1 जंत में संस्करण का दही खखूप सिर हुआ दिस खरूप में यहः आज पाठकों के संमुख उपस्थित हो रह्य है। ऊपर कह्य जा छुका है कि च्वि योग्य अमुक सामग्री तो पहले ही से संचित की हुई पढी थी; पर विप्पण का ठोंक-ठीक एटा




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