चिद्विलास | Chidvilas
श्रेणी : हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
164
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about दीपचन्द जी काशलीवाल - Deepachand Ji Kashalival
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १७ )
. निश्चय नयसे रागादि भी जीव 'निरपेक्षपने'
स्वथं करता हे।
कोई प्रश्न करे कि, इस म्रकरारकी मान्यतामे तो जीवके वि-
भाव रागादिकको सी स्वाभाविक मानना पड़ेगा १ उत्तर--
.-रागादिक जीवकी ही पर्यायं होते ই इसलिये जीव टी अ~
शुद्ध निश्चय नयसे उनका कर्ता हे । लेकिन वे हमेशा' जीवम
नहीं पाये जाते इसलिये वे जीवके त्रिकाली মান नही है, ` फिर
मी अगर उस एक समय के पर्यायके स्व्रभावकी अपेक्षा लो तो उस
समय मात्रकी पर्यायका জমান ही रागादिरूप है। जय घवला
पत्र ३१९ में कहा है कि- “कषाय चौदयिक भाव से होती
है । यह नेगमादि चार नयोंकी अपेक्षा समझना चाहिये, शब्द
आदि तीनों नयोंकी अपेक्षा तो कषाय पारिणामिक भावसे होती
है, क्योंकि इन नयोंमें कारणके बिना कार्य की उत्पत्ति होती है?
उपरोक्त कथनसे सिद्ध इवा क्रि विकारी पर्याय भी जीव नि-
रपेक्षपने समय २ स्वयं करता है, कोई कर्म आदि पर वस्तु उसको
रागादि नदीं करा देते, जवर यह स्वय रागादि खूप परिणिमता ₹ै
तो उस समय उपस्थित कर्मादिपर उदयरूप निमित्तपनेका उपचार
গালা है, ओर अगर यह विकाररूप नहीं परिणम तो उन्हीं करमो.
पर निजरा रूप निमित्तपनेका उपचार किया जाता है। कुछ.
जीवका विकारी होना नहीं होना कर्मादिककी पर्यायोंके परिणमन
को रोक नहीं सकता, इसही विकारी पर्यायक्रा, जब निमित्तकी
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