बृहत विश्व सूक्ति कोश भाग 3 | Brhat Vishwa Sukti Kosh Vol-3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रस भर भाव लक्ष्मी रिंव बिना त्यागान्न वाणी भाति नोरसा । चिना त्याग के धन की शोभा नहीं होती । मौर रसहीन वाणी की भी शोभा नहीं होती । -अग्निपुराण ३३९६ विभानुभावव्यभिचारिसंयोगा दू रसनिष्पत्ति । विभाव भनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस- निष्पत्ति होती हू । --भरत नाद्य्ञास्त्र ६३२ के पदचातू अस्तु बस्तुषु मा वा भूत कविवाचि रस स्थित । किसी वस्तु मे रस हो या न हो किन्तु कवि की वाणी में रस होना चाहिए ॥ -- पाल्यकीति राजदोखर कृत काव्यमीमांसा में उदुघृत यथा तथा वास्तु वस्तुनोरूप॑ं वक्‍्तृप्रकृतिविशेषायत्ता तु रसबन्ता । तथा च यमर्थ रक्त स्तौति त॑ विरक्‍तो विनि- न्दति मध्यस्थस्तु तन्नोदास्ते । वस्तु का रूप चाहे कसा भी हो सरसता तो कवि की प्रकृति के आधार पर है। अनुरक्त व्यक्ति जिस वस्तु की प्रशंसा करता है विरक्‍त व्यक्ति उसी की निन्‍्दा करता हैं ओर मध्यस्थ व्यक्ति उस संबंध में उदासीन रहता है । --पाल्यकीति काव्यमीमांसा में उद्घृत चतुर्वेंगंफलास्वादमप्यतिक्रम्य तद्वि दामू । काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ॥। काव्यामृत का रस काव्य को समझने वालों सहदयों के अन्त करण में चतुवगं रूप फल के भास्वाद से भी बढ़कर चमत्कार को उत्पन्न करता है । -कुंतक वक्रनोविंतजी वित असम्यपरिपाटिकामघिरोति श्पूंगारिता परस्परत्रस्कृति परिचिनोति वीरायितम्‌ । विरुद्धगतिरदूभुतरतदलमत्पसार परे शमस्तु परिश्षिष्यते बामितचित्तखेदो रस ॥ श्युंगार रस असभ्यों के व्यवह्वार का प्रतीक बनता है । वीररस आपसी तिरस्कार का परिचय कराता है । अदृभूत रस प्रत्यक्ष-विरुद्ध अनहोनी बातों का भाश्रय लेकर चलता &१० / विश्व सुवित कोश है । भल्परस वाले इतर रसों से क्या लाभ हो सकता हू? अन्त में चित्त के खेद को शान्त करने वाला केवल एक शान्त रस ही सही वचता हूँ । -क्बिताकिक नमोध्स्तु साहित्यरसाय तस्मे निषिक्तमन्तः पुषताधपि यस्य। सुवर्णतां ववन्रमुपति साधोर्दुवंणतां याति च दुर्जनस्य ॥ उस साहित्य-रस को मैं नमस्कार करता हूँ जिसका एक कण भी भन्त.करण को स्पर्श करे तो सहूदयों का मुख सुवणता को प्राप्त करता है और दुजेन का मुख विवणंता की प्राप्त होता है। --परिमल पद्मगुप्त तवसाहसांकचरित ११४ स्वादुरम्लोश्यलवणो कट्कस्तिक्त एव च । कषायदचेति षट्कोध्यं रसानां संग्रह स्मृतः ॥ मधुर भम्ल लवण कटु तिक्त और कपाय छह रस हैं । --चरक संहिता सूत्रस्थान प्रथम अध्याय संसार-विषवृक्षस्य हे रस फले ह्ममूृतोपमे । काव्यामृतरसास्वाद संगति सुजनैः सह ॥ संसार रूपी विष-वृक्ष के दो फल अमृत तुल्य हैं-- काव्यामृत के रस का आस्वाद और सज्जनों की संगति -बज्ञात जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस-दशा कहलाती है। -एरामचन्द्र शुषल रस-सीमांसा पृ प्र रस का-पुर्ण चमत्कार समरसता में होता है । -- जयशंकर प्रसाद काव्य और कला तथा अन्य निवन्ध पुर ७४ रस और भाव न भावहीनो5रित रसो न भावों रसवजित । भाव्यते रसा एभि भाव्यन्ते च रसा इति ॥।




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