रसकपूर एतिहासिक उपन्यास | Rasakapoor etihasik Upanyas

Rasakapoor etihasik Upanyas by ध्यान माखीजा - Dhyan Makhija

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रसकपुर दर मनोविज्ञान अब काल्पनिक लग रहा था । वह भी मेरे साय विचारमग्न हो गया था | कुछ सोचते हुए पकज ने मु कसे कहा कल हम दोनो नाहर्गढ कितने मे चलंगे इस सुभाव से मैं बहुत मुश्किल से सहमत हुआ | अगले दिन हम दोनों नाहरगढ किले में पहुंच गये । पकज एडवेंचरस नेचर का था । वह किले के हर कोने का निरीक्षण कर रहा था पर मैं अदर- ही-प्रदर वहुत डरा और सहमा हुआ था । हम दोनो पुरे दो घटो तक किले के झदर-वाहर घूमते रहे पर हममे से किसी को किसी आत्मा के ददान नही हुए न ही किसी ने साडी के आचल की छभन को अनुभव किया । मैं पकज को उस दीवार पर भी ले गया जहा मुभे जयपुर शहर देखते हुए आचल की छमन का अनुभव हुआ था । हम काफी देर तक दीवार पर खडे रहे पर न तो इत्र की भीनी-भीनी खुणदू आयी और न ही किसी आचल ने हुवा के कौंके के साथ हमे छुआ । हम किले से नीचे उतर आये और बिना किसी निप्कर्ष पर पहुंचे अपने-अपने घरों को वापस आ गये । मेरे कुछ परिजन दिल्‍ली से जयपुर घूमने आये थे । उन्होने आमेर के ऐतिहासिक महल को देखने की इच्छा व्यक्त की । मैं उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार करने मे हिचक रहा था । अदश्य-अगरीरी आत्माओ का भय अभी तक मेरे मन मे बना हुआ था । मै महलो-किलो से दूर ही रहना चाहता था। आमेर चलने मे अपनी असमथता के लिए मैं कोई ठीक-सा बहाना नहीं ढूढ सका । परिजनों की जिद के आगे मुझे भुकना पडा और हम सब दूसरे पहर आगमेर के लिए रवाना हो गये । यहा उपन्यास के पाठकों को आमेर का स क्षिप्त परिचय देना आव- पयक है ।




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