रणधीर और प्रेममोहिनी | Randhir Aur Premmohini
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
158
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)८ रणधीर ओर प्रेम्मोहिदी । [ द्वितीय
आ आ সপ
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रिपुदमन--( आश्चयस मनम ) मेन केसी अचरजकी वात देखी ! क्या अबतक
मेरा सन ठिकाने था, इस वीरने किस कारण अपने प्राण झोक कर मेरी रक्षा
की ? और रक्षा भी की तो मुझसे विना मिले क्यों चला ?. इस कलिकालमें
किसीसे कोई अच्छा काम वन जाता दे, तो वह जन्म भर अपनी वडा मारता है ।
फिर जो मनुप्य इतना बड़ा काम करके कुछ न जतावे, उसको साधारण आदमी
वैते समद्धु ' मेरे मनम इस वीरस प्रीति करनेकी वड़ी चाहना है, पर ऐसे सल्वन
खुशनदकी वातोंप्त कप्ती प्रस नहीं हैते! इस कारण पहले इनस छेड़छाड़की
वाते कम ; ( प्रकटर्से रणबीरस ) आपके कानसञाप क्त्री जाने जति डो, पर
आपने मेरे निशानपर शत्र चलाया सो अच्छा नहीं किया ।
रणधीर--( फिरकर, मुसकुराते :ए) मेरा ध्यान इस बात पर न था।.
रिपुदमन---तो इसके वदलेमें आपको अपना निशाना वनाऊं २
रणघीर--निःसंदह ।
रिएद्सन--अच्छा, तो में आपके मनको अपना निशाना वना कर प्रेम
वाण छोड़ता हूं ।
रणधीर--पर ग्रे शिकार तो शिकारीक शिकार हुए विना हात नहीं आती ।
( अर्थात दूसरेक मनम अग्नी प्रीति उन्न करके पटले अपने मनम उसकी प्रीति
करनी चाहिये । |
रिपुद्मन--सो में तो पहले ही अपने शिकारके साथ आपका शिकार हो चुका,
पर आपके मनको क्षपना शिकार वनानक लिये सेरी जमथ्ये नहीं है ।
रणधीर--सम्थवानोके कहनकी यदी रीति हती दे :---
दोहा। गरजे सो बरसे नही, शरदजख्द् अदधुमान ।
वरसे लो गरजे नहीं, वर्षा मेघ समान ॥ १ ॥
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