रणधीर और प्रेममोहिनी | Randhir Aur Premmohini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ रणधीर ओर प्रेम्मोहिदी । [ द्वितीय आ आ সপ চি रिपुदमन--( आश्चयस मनम ) मेन केसी अचरजकी वात देखी ! क्या अबतक मेरा सन ठिकाने था, इस वीरने किस कारण अपने प्राण झोक कर मेरी रक्षा की ? और रक्षा भी की तो मुझसे विना मिले क्यों चला ?. इस कलिकालमें किसीसे कोई अच्छा काम वन जाता दे, तो वह जन्म भर अपनी वडा मारता है । फिर जो मनुप्य इतना बड़ा काम करके कुछ न जतावे, उसको साधारण आदमी वैते समद्धु ' मेरे मनम इस वीरस प्रीति करनेकी वड़ी चाहना है, पर ऐसे सल्वन खुशनदकी वातोंप्त कप्ती प्रस नहीं हैते! इस कारण पहले इनस छेड़छाड़की वाते कम ; ( प्रकटर्से रणबीरस ) आपके कानसञाप क्त्री जाने जति डो, पर आपने मेरे निशानपर शत्र चलाया सो अच्छा नहीं किया । रणधीर--( फिरकर, मुसकुराते :ए) मेरा ध्यान इस बात पर न था।. रिपुदमन---तो इसके वदलेमें आपको अपना निशाना वनाऊं २ रणघीर--निःसंदह । रिएद्सन--अच्छा, तो में आपके मनको अपना निशाना वना कर प्रेम वाण छोड़ता हूं । रणधीर--पर ग्रे शिकार तो शिकारीक शिकार हुए विना हात नहीं आती । ( अर्थात दूसरेक मनम अग्नी प्रीति उन्न करके पटले अपने मनम उसकी प्रीति करनी चाहिये । | रिपुद्मन--सो में तो पहले ही अपने शिकारके साथ आपका शिकार हो चुका, पर आपके मनको क्षपना शिकार वनानक लिये सेरी जमथ्ये नहीं है । रणधीर--सम्थवानोके कहनकी यदी रीति हती दे :--- दोहा। गरजे सो बरसे नही, शरदजख्द्‌ अदधुमान । वरसे लो गरजे नहीं, वर्षा मेघ समान ॥ १ ॥ সি ক্স এ রস এপ ও ওসি এ প্র এটা অর জা आफ পি धन्य कफ, हीरे क, 65 १ ज, क, = क পদ লালিত ক




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