सदबोध संग्रह [भाग 1] | Sadbodh Sangrah [Bhag 1]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
146
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९)
१८ किर्साके अगाडी दीनता दिखलानी नही,
तुच्छ स्वार्थक खातिर दूसरेके अगाडी दीनता बतानी योग्य
नहि है. यदि दीनता-नञ्अता करनेको चाहो तो सब शक्तिमान सर्व-
ज्ञकी करों. क्योंकि वो आप पूर्ण समर्थ है और अपने आश्रितकी
भीड भाग सकते है. मगर जो जापही अपूर्ण अशक्त है वो शरणा-
गतकी किस प्रकारसे भीड मांग सके? सर्व प्रसुके पास भी
विवेकप्ते योग्य मंगनी करनी योग्य है, वीतराग परमात्माकी किंवा
निभ्रथ अणगारकी पास तुच्छ सासारिक घुखकी प्रार्थना करनी
उचित नहि है. तिन्होंके पास तो जन्म मरणके दुःख दूर करनेकीही
अगर भवभवके ठु.ख जिससे हट जाय एसी उत्तम सामगरीकीही
प्रार्थना करनी योग्य है. यद्यपि बीतराग प्रमु राग देष रहित है;
तथापि प्रमुकी शुद्ध भक्तिका राग चितामणीरत्नकी सादन फडी-
भूत हृष् विगर् रेता नहि. शुद्ध माके यमी एक अपूर्वं वस्या
प्रयोग है. मक्तिस कठिन कमैकामी नाश हो जाता है, ओर उसीसे
सर्व संपत्ति सहजहींमे आकर प्राप्त होती है. ऐसा अपूर्व छाम छोड-
कर बबूछको माथे भरने जैसी तुच्छ विषय आशंसनासे विकढ-
पनसे तेतीही प्रार्थना प्रभुके अगाडी करनी के अन्यन्न करनी यह
कोई प्रकारसे सुज्ञजनोको मुनासिवही नहि है, सर्वे शाक्तिवत सवज्ञ
प्रमुके समीप पूर्ण भक्ति रागसे विवेक पूरक ऐसी उत्तम प्रार्थना
करो याबवत् परमात्म प्रमुकी पवित्र आज्ञाका अनुसरनेके लिये
ऐसा उत्तम पुरुषार्थ स्फुरायमान करो के जिससे मवमवकी भावट
टछकर परमपद प्रापतिसे नित्य दिकरी होय, यावत् परमानद्
प्रकृटायमान होय, मतख्व किं अनत अवाधित अक्षय सहज सुख
होय. सेवा करनी तो ऐसेही स्वार्मीकी करनी के লি सेवक
भी स्वामीके समानही हो जावे,
User Reviews
No Reviews | Add Yours...