हिंदी विश्वकोष [भाग 8] | Hindi Vishwakosha [Part 8]

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Book Image : हिंदी विश्वकोष [भाग 8] - Hindi Vishwakosha [Part 8]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जन्मास्पद--जप जन्माध्यद ( स० क्ती० ) जन्मस्थान, जन्मभूमि | | जम्मिन्‌ ( स मु० ) १ प्राणी, जोव | (जि०) र्जौ उत्पन्न हुआ हो | अन्मेजय ( स'० पु० ) जनसेजय राजा । २।१११६ ख्लोकको टोकासें लिखा है-- जम्मनेद्रातिशुद्धेन शर्ते नेजितवान्‌ यत, । एजूइ इम्पने धातोदिं जन्मेजय इति छुतः 17 जनमेजय देखो । जभ्मेश ( स^ पुर) जनूमराशिकरा खामो । जन्मपर देखो । অন্য (ঘ'ৎ জী০) नन-ष्यत्‌। १ ट, दार, बाजार । २ परिवादः, निन्दा । २ स'ग्राभ, युद्ध, लडाई । ( ) 8 उत्पादक, जनक, पिता । ५ महादेव, शिव | “उम्रतेजा महातेजा जन्यो विजयकालवित्‌ ।”(भारत १श१०७५९) | হ देह, शरोर ।७ जनजल्य । जल्प देखो ! ८ किंवदन्तो, अकवाह | ( त्रि० ) ८ उत्पाद, उतान्न करनेके योग्य । १० जनयिता, उत्पादक, जनम देनेवाला । ११ जातोय, दैशिक, राषट्रीय। १२ जनहित, सनुष्दोंका हितकर। १३ जन सस्बन्धी । १४ उद्भूत, जो उत्पन्न इआ हो । ( प ) १५ नवोढ़ाके रत्य, नवविवाहिताके नौकर । १ ६ नवविवा- हिताके न्नाति, भारैवसु. बांधव | १9 ननविवाहिता- के मित्र) १८ नवविवाहिताकी प्रिय जन । १६ जामाता, दामाद । २० इतर लोक, -जनस्ाधारण, साधारण मनुष्य । २१ जनन, जनमः पदाद्श । २२ बराती। २३ वरके प्रिय जन, वरपक्कै लोग । २४ जाति। २४ वर, दूलह। २६ पुत्र, वेटा | जन्यता ( ० स्त्रो० होनेका भाव । देवोभागवतके ) जन्ध-तल्‌ टाप । उत्पायता, जनृम जन्या ( स'° समी ) जन्यटाप,। १ माताकौ सखौ । २ रोति, जे, प्रेम । ३ वधको सदेलो। ४ वध । णन्य्‌, ( स० प°) जन-युच्‌ बाइलक्रात्‌ न अनाः | * अस्नि। २ ब्रह्मा, विधाता। ३ प्राणो, जन्तु, जव । है के আবী বা जप (स ति° ) जप-कार्तरि अच.। १ जयकारक, जप करनेवाला ।( भि ) ( पु० ) भाषे अप 1 २ पाठ, अध्य- यन। ३ सन्त आदिकी भाठत्ति, मन्तादिका पुनः पुनः १५ उच्चारण। श्रग्निपुराण ग्रौर तन्तसारमें लिखा €~ निज न स्थानमें माहित चित्ते देवताको चिन्ता कर जप करना पड़ता है। जपकालमें विन्पूत्न त्याग करने कि वा भयविद्वल होनेसे वह बिगड़ जाता -है। मलिन वेश अथवा दुर्ग खियुक्ञ मुखसे जप करने पर देवताकी प्रोति नहों होतो | जुपकालमे' आ लस्थ, लुम], निद्रा, कास, निष्ठोबन त्याग, कोप और नोच अड्टका स्पशं सम्प्र णः रूपसे परिहार करना चाहिये । जप तीन प्रकारक्षा है-मानस जप, उपांश जप और वाचिक जप । मन्त्रार्थं सोच कर सन हो मन उसको उच्चारण करनेका नाम मानस जप है। देवताका चिन्तवन कर जिद्चा और दोनो' ओष्ठो'की सुक्मतया हिलाते हुए क्िज्वित्‌ अवणयोय जो जप किया जाता है वह उपांश कहलाता है । वाक्य हारा मन्त्र उच्चारण पूर्वक जप करनेको वाचिक कहते हैं। स्थि इसके दू.छरा भौ एक जप है | उप्तको जिद्राजप कहा जाता है। यह जप कंवल जोभसे ही करना पड़ता है । वाचिकरसे उपांश दशगुण, जिच्चाजप शतगुण और सानत सहस्रगुण अष्ठ है। जप करते करते इसकी गणना करना उचित है,'कितना जप हो गया। इसोके लिये जपमालाका प्रयोजन पडता है। जपमाला देखो । भर्त, इस्तपन्‌ं, धान्य, पुष्य, चन्दन कि'वा सत्तिका जपको संख्या ठद्राना निषि है। लाक्षया मोम हारा जप गिननेको विधान है। ( तन्त्रध्ार ) कुलाण बतन्त्के प्रतसे उत्चौ;स्वरका जय अधम, उपश्ि सैध्यम भौर सानस उत्तम-जैस। होता है। जप अति इस्व होनेसे रोग बढ़ता और बहत रीष पडनेषे तथः घटता हे । मन््रका अर्थं, मन्रच तन और योनि- यद्रा न समभनेसे शतकोटि नयसे परो क्या कोई फ़ल मिलता है। सिवा इतक गुवीं भ्रधवा भ्रव तन्य मन् भी निष्फल ३, च तन्ययुक्त मन्त्र ही स्व सिद्दिकर होता है। च तन्ययुज्ञ मन्त्र एकबार जप करनेसे जो फल मिलता, भच तन्य मन्त्रे शत सहस्र- मथवा लक्त जपन्न भो बह दुलभ है। चं तन्यय्‌ क्त सन्त सव सिद्धकर है। च्‌ ন্যস্ত न्तका एक बार जय करनेसे जो फल मिलता है, अचेतन्य मनका जार था लाख बार' जप करनेसे সি




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