हमारी बा [भाग 1] | Hamari Baa [Part 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वा का बाल-गृहस्थाभ्रम ५, करना चाहिये कि जवानीमे मेंने वा को पढानेकी जितनी कोशिश कीं, छे सब करीब-करीय वेकार शर्ओ | जब में विषयकी नींदसे जागा, तब तो सार्वजनिक जीवनमे पड चुका था, सर्यि मेरी स्थिति जैसी नहीं रह गमी थी कि में ज़्यादा समय दे सकूँ | शिक्षकके जरिये पद्ञनेकी मेरी कोशिश भी बेकार हुओं। नतीजा यह हुआ कि आज कपतूखाओ मुश्किल्से पत्र लिख सकती है और मामूली गुजराती समझ लेती है। में मानता हूँ कि अगर मेर प्रेम विषयमे वषित न हताः तो आज दह विदुषी खी होतीं | भुनके पहनेके आल्त्यको में जीत सकता |” २ बा का बाल-गृहस्थाभ्रम जिस प्रकार बचपनमें ही वा और बापूरजजके गहस्थाभ्मका आस्म हुमा 1 वारव জিন पति-पलीकी ग्टस्थीका भौर नादानीते भरे झगड़ोका वर्णन बापूजीने बहुत ही मामिक दोपि किया रै । ससे हम देंख सकते हे कि जो भी वा निख्षर थों, तो भी भेसी नहीं थीं कि अपनी खतल्रताको न समझें | वे छम्बी बहस या दलील नहीं कुर पाती थीं, लेकिन अपने मनक्री करनेमे क्रिसीके दावे दवती भी नहीं थीं। बापूजी लिखते है; “जिन दिनों शादी हुओ, भुन दिनों निवन्धोकी छोटी-छोटी पुर्तिकाओं निकछा करती थीं | अुनमे दामत्म-्पेम, किफायतशारी, वारूविवाद वभर विपर्यक्ी चचा रहती थी । अुनमेसे कुछ निबन्ध मेरे हाय पड़ जाते ओर में ङे पढ़ जाता । यह आदत तो थी ही कि पहना, जो पतन्द न आये भुसे भूछ जाना और जो पसन्द पढ़े, झुत पर अमछ करना | पढ़ा या कि ओक पलीव्रत पालना पतिका धर्म है, और यह वात हृदयमे बसी रही । 4 ५ लेकिन सि सदूविचारका अक बुरा परिणाम हुआ । अगर मुझे ओअक पल्नोबरतका पालत करना है, तो पलीको अक पति्रतकरा पाटन कना चाहिये | जिस विचारकी वजहसे में औष्यांड पति बन गया | “पालना




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