तुलसीदास और उनके ग्रन्थ | Tulsidas Aur Unke Granth

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Tulsidas Aur Unke Granth by भगीरथ प्रसाद दीक्षित - Bagirath Prasad Dixit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गोस्वामीजी की प्रवृत्तियां & शास्त्र, रस और ध्वनि आदिका उन्होंने गंभीर अध्ययन किया था । परं नायिकामेदसे उन्होंने श्रपने साहित्यको वचानेका पूरा भ्रयतन किया है, क्योकि इसे वे देश भर समाज दोनोके. लिए भरत्यन्त हानिकारक समभतते थे ओर इसमे कलुषित भावनाका गहरा पुट पाते धे। शादवों प्रवृत्ति. विविध प्रकारकी भाषाका प्रयोगक्र परिमाजित भ्रौर साहित्यिक - जीवनका स्तर ऊंचा उठाना। इसीलिए उन्होंने ब्रजभाषा, भ्रवधी, कन्नौजी, वुंदेली भ्रादि भाषाशोंकी कई-कई शैलियाँ दिखाकर साहित्यिक भाषाका सुथरा रूप समाजके सामने रखा। इनमें से ब्रजभाषाके अनेक रूपोंको कवितावली, पदावली, दोहावली मानस भौर विनयपत्रिकरा्में हम भली प्रकार देख सकते हैं। इसी प्रकार अवघीकी अनेक शैलियोंको बरवे रामायण, जानकीमंगल, पार्वतीमंगल और रामचरित मानसमें स्पष्टतया देख सकते हैं। इसी तरह कन्नौजी व बुंदेलीके रूपको हम उनकी रचनामें यत्रतत्र, विखरा हुआ पाते हें। इससे हम भली भांति उनकी इस प्रवृत्तिका पता लगा सकते हैं। कुंडलिया रामाधण व मानसमें ऐसे नेक उदाहूरण मिल सकते हं । नवीं प्रवृत्ति, गोस्वामीजी समाजके लिए दो धाराएं चलाना चाहते थे। (१) गाहँस्थ्य जीवनके लिए वर्ण-व्यवस्थाको कड़ाईसे पकड़ा था श्रौर उसे जन्मपरक मानकर श्रागे बढ़ाना चाहते थे। पर जो हिन्दू भिन्नरर्मी बन जाय उसके लिए समाजमें स्थान नहीं था। पर सन्त मतके श्राधार पर वैराग्य दशापे कोई भी व्यवितत रामभक्त हो सकता है। उसमे यवन, शक, खस, चांडाल, समीके लिए दरवाजा खुला हुश्रा था। इस पथ पर चलनेकी किसीको रोक नहीं थी। पर गोस्वामीजौ के इष दूसरे मार्ग॑को किसीने नहीं अपनाया, क्योंकि सामाजिक रूपमें वे इस प्रवेश पर रोक लशा चके थे 1 एसी दशामें एकांगी पथ म्मौरं श्रधूरा मान कौन स्वीकार कर सकता था! दसवीं प्रवृत्ति पौराणिक सम्प्रदायोका समन्वय रौर दारौनिकं विच।रोकी एकता भी उनका एक प्रधान लक्ष्य था। इसीलिए उनमें शैवों व वैष्णावोंका मेल करानेकी प्रवृत्ति बड़ी प्रवल थी। इसी प्रकार त्द्व॑त,शुद्धाहव॑त, देत्ताहत, विशिष्टाह्तके दार्शनिक विचारोंकी च्चा भी मानसम विस्तारते प्राई हं । पर उनके समन्वयकी चर्चा न होते हुए भी इन सवक्तो मान्य ठहूरानेकी भावना उनमें श्रव्यं पाई जाती है 1 द्ैतकौ वैदिक भावना उनकी रुतिके अतृकूल न थी। इनका निजी मत ब्द्वेंत ही जान पड़ता है। ग्यारहवों प्रवृत्ति, लोकाचारको महत्त्व देना है। इसमें ग्रामदेवी, देवता श्रादिको भी वह ले लेते हैं। कुझ्ं पुजाना, महछू कराना, वट-पूजा, लहकौरि अःदि इसी प्रवृत्ति के चोत्‌ हं । विवाहू्े गाली गवाना गोस्रामीजी के इसी विघानके श्रन्तगेत श्राता है।




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