संतबानी संग्रह | Santbani Sangrah

Santbani Sangrah  by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कबीर साहिब | १५ / (चंद) | दुखित तुम बिन रटत নিবি दिन, मृगट दरसन दीजिये । बिनती सुन प्रिय स्वामियाँ, बच्ि जाउँ बिलेंब न कीजिये ॥१॥ ( चौपाई ) हे , अन्न न भावे नींद न आवे ! बार बार मोहि बिरह सतावे ॥ ( छंद ) | विविध विधि हम भई ब्याकुल, बिन देसे जिव नारहे। तपत तन जिव उठत भाला, कठिन दुख अब को सहे ॥२॥ ( चौपाई ) तैनन चलत सजल जल धारा । निप्ति दिन पंथ निहारों तुम्हारा ॥ - (छद )- गुन ओगुन अपराध छिप्ता करि, ओझुन कछु न बिचारिये । पतित-पावन राखु परमति' , अपना पन न बिसारिये ॥३॥ ( चौपाई ) $ गृह आँगन मोहि कछु न सुहाई, बच मई ओर फिस्यो न जाई ॥ , (छंद ) नैन भरि भरि रहे निरखत, निमिख नेह न तुड़ाइये। बारे दीजे बंदी-छोड़ा, अब के बंद छुड़ाइये ॥४॥ योपा (चौष) . मीन मरे जेसे बिन नीरा। ऐसे तुम बिन दुखित सरीरा ॥ (छंद) दास कबीर यह करत विनती, सहा पुरुष अव मानिये। दया कीजे दरस दीजे, अपना करि मोहि जानिये ॥५॥ है - (२) दरमाँदे ठादे दरबार ॥ टेक ॥ तुम बिन सुरत करे को मेरी, दरसन दीजे खोलि किवार ॥१॥ तुम ही घनी उदार दयात्‌ , सवनन सुनियत्त सुजस तुम्हार ॥२॥ (१) बच्च मत या साव |




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