इर्ष्या की आग | Irshya Ki Aag

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : इर्ष्या की आग  - Irshya Ki Aag

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about ज्ञान मुनि जी महाराज - Gyan Muni Ji Maharaj

Add Infomation AboutGyan Muni Ji Maharaj

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
करते नही चूकती थी । श्रौर तो और खाने-पीने में भी दुभात-भेद कर देती थी । जव उसका पति सुधेश धर पर प्राता तो उसे स्वादिष्ट गर्म-गर्म भोजन कराती थी और अपने देवर को ठण्डा तथा अ्रवशेषाहार दे देती थी । घर का काम भी उससे वहुत लेती रहती थी । किन्तु सतोषी एव सरलं अवधेश अपनी भाभी को भी माँ के तुल्य ही मानता খা। वह भाभी के हर कटु वचन को शाति के साथ सह जाता धा । श्रौर भाभी का बतलाया सारा काम भी पूणं कर देता था | भाभो जो भी खाने को दे देती, उसे समभाव के साथ खा लेता था । अवधेश यद्यपि छोटा था किन्तु विचार बहुत उन्नत थे । क्योकि सत्सगति जैसी मिलती है, व्यक्ति के विचार भी वैसे ही बन जाते है। अवधेश प्रारम्म से ही कनक काता के त्यागी, निग्रन्थ श्रनगार-साधु-मुनिराजो के सत्सग मे प्राया जाया करता था । उनके सदुपदेश भी सुना करता था । उसी का प्रभाव था कि वह हर परिस्थिति को समभाव के साथ सह जाता था । एक बार उसने एक महायोगी से सुना था कि यदि सुखी वनना चाहते हो तो महाप्रभु महावीर के इस एक सिद्धात 'समो निन्दापससासु' को जीवन मे उतार लो अर्थात्‌ हर क्षण, हर परिस्थिति मे, निन्‍दा या प्रशसा मे समभाव रखा जाय । यदि यह सिद्धात भी जीवन मे सही रूप मे उत्तर जाता है तो वह व्यक्ति प्रन्तत परमसूखी बन जाता है । क्योकि निन्दा और प्रशसा में समभाव रखने पर पूर्ववद्ध कर्मों की निर्जरा होती है और आगे भी अशुभ कर्मो का वधन नही होता है। ७ |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now