ठेले पर हिमालय | Thele Par Himalaya

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Thele Par Himalaya by धर्मवीर भारती - Dharmavir Bharti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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উল ধর हिमालय ७ ्ानसनामि ने बताया कि ^ श्राप सोय वड़े खुशक्स्मत हं साहव ! १४ रयूरिस्ट आकर हफ्ते भर पड़े रहे, बर्फ नहीं दीखी । आज तो झापकी आते हो झ्रासार खुसने के हो रहे है 1” सामान रव दिया गया । पर मं. मेरी पत्नी, सेन, सबल जी सभौ विना चाय पियें सामने के बरामदे में बैठे रहे, और एकटक सामने देखते रहै । बादल -धीरे-धीरे नीचे उततर रहे थे और एक-एक कर नये-नये शिखरों की हिमरेखाये अनावृत हो रही थी । और फिर सब खुल गया। बाई झौर से शुरू होकर বাই भोर गहरेसूस्य में घेसती जाती हुई हिम-शिखरों की ऊवड़-खाबड़, रहस्यमयी, रोमाँचक श्यृंखला । हमारे मन में उस समय क्‍या भावनाएं उठ रही थी यह धगर वता पाता तो यह खरोच, यह पीर ही क्यो रह गई होती । सिर्फ़ एकं धुधला-सा सम्बेदन इसका श्रवस्य था कि जंसे वर्फ की सिल के सामने पष होने पर मुंह पर ठडी-ठंडी भाष लगती हूँ, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छ रही है और सारे संघर्ष, सारे अन्तर्न्द, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं। क्यों पुराने साधको ने दैहिक, देंविक और भौतिक कप्टो को ताप कहा था झौर उसे नप्द करने के लिए वे क्यो हिमालय जाते थे यह पहली वार मेरी समझ में झा रहा था । भौर झकस्मात्‌ एक दूसरा तथ्य भैरे मन के क्षितिज पर उद्दित हुप्रा । क्तिनी, क्तिनी पुरानी हैं यह हिमराशि ! जाने किस आदिम काल से यह शाश्वत भविनाशों हिम इन शिखरों पर जमा हुप्ा है। कुछ विद्यो ने इसीलिए हिमालय कौ दख वपा को कहा है--चिरतन हिम (116 1८113) 510५3) । सूरज ढल रहा था। और सुदूर शिखरो पर दरें ज्लेशियर, दाल, घादियों का क्षीण क्षाभास मिलने लगा या । झातंकित मत से मेने बह मोचा था कि पत्ता नही इन पर कमी मनुष्य का चरण पड़ा भी है या मदी या भरनन्तकाल मे इन सूने वर्फलडेंके दरों में सिफे बर्फ के प्रद हह करत हुये बहते रहे हू । मूरज डूबने लगा झोर धीरे-धोरे ग्लेशियरों में पिघली केसर बहने लगी 1 रप कमल फे लाल फूलों में बदलने लगी, घाटियाँ गहरी नीली हो गईं। ০২ মা तो हम उठे और मुँह हाथ घोने ओर चाय पीने में लगे । एप्वाप थे, गुमसुम जैसे सब का कुछ छिन गया ही, या शायद सवको कद्ध देवा भितं गया हो जिसे মইন সিডি भरन्दर ही अन्दर सदेजने में मीन दो अपने में डूब गये हो হু दर सदेजन में सब झात्मलीन हो




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