साधना समुच्चय | Aradhana Samucchy

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रविचन्द्र मुनीन्द्र - Ravichandra Muneendra

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सिध्दसागर - Sidhdsagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( 5 ) तथा जिसका यज्ञ सूर्य के समान चारो दिशायो मे व्याप्त था । ऐसे महाराजा का महान भ्रमात्य था नानु गोधा । जिसका यश भी अपने स्वामी के समान घारो दिशाश्रो मे व्याप्त था। जिन्होंने कैलाश एवं सम्मेद शिखर की तीर्थयात्राये की थी तथा जिनकी नव साहित्य निर्माण करवाने कीश्रोर विदोष रुचिथी । यशोधर चरित एक प्रवन्व है । इम काष्य कौ एक पाण्डुलिपि जयपुर के महावीर भवन के संग्रहालय मे उपलब्ध है) प्राप्त पाण्डलिपि स० १६६१ श्र्थात्‌ अपने रचनाकाल के क्रेवल २ वर्ष पश्चात्‌ की ही लिखी हुई है। स० १६६४ (सन्‌ १६०७) ज्येष्ठ कृ० ३ इस नगर के लिए श्रपने इतिहास का स्वर्ण दिन था स दिन यहा जैन मन्दिर का निर्माण होने के पश्चात्‌ एक बेडा भारी समारोह भ्रायोजित किया गया जो वच-कस्याणक प्रतिष्ठा कै नाम से विख्यात है । प्रतिष्टाकारक थे महाराजा मानसिह के विश्वस्त भ्रमात्य स्वय नानु गोधा । इसलिये यह समारोह राजकीय स्तर पर प्रायोजित किया गया । इसमे राजस्थान के ही नहीं समूचे देश के विभिन्न ग्रामो एवं नगरो से लाखों की सख्या मे जैन एवं जैनेतर समाज एकत्रित हुआ । श्रौर भगवान ष मदेव की मूति सहित मैकडो कौ सख्या मे जिन मूतियो कौ प्रतिष्टा विधि सम्पन्न हुई । सभव है इस समारोह में मुगल बादगाह अकबर के प्रतिनिधि तथा स्वय महाराजा मानिह भी सम्मिन्तिहूये हो क्योकि प्रतिष्टा सम।रोह एव मन्दिर निर्माण को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे नानु गोधा ने उस समय अपनी समस्त विशाल सम्पत्ति का मुक्त हस्त से वितरण करके उसका सस्कृति, साहित्य एव कला के विकास में सदुपयोग किया था । प्रपती कला एवं विज्ञालता के लिये गीघ्ही नातु गोधा द्वारा निर्मा पित नगर का यह जैन मन्दिर सारे राजस्थान मे प्रसिद्ध हो गया । लोग सुदूर भ्रान्तो से दशेना्थं भ्राने लगे श्रौर संकडो वर्षो तक यद्‌ उनवा तीर्थं स्थान बना रहा । मदिर के ऊपर जो तीन शिखर है वे मानों दूर से ही जनसाधारण को भनी भोर झाम त्रित करते हैं तथा साथ ही मे जगत को सम्यक्‌ श्रद्धा, सम्यक्‌ ज्ञान




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