भारतीय समाजवादी चिन्तन | Bhartiya Samajwadi Chintan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भारतीय समाजवाद की ओर [9
आग पिछडेपन की गिरफ्त में फंसे रहे । यूरोपीय समाजवाद की इस
प्रवृति के तीन भयंकर परिणाम सामने झाये : प्रथम, विश्व में एक
सामाजिक तथा झाधिक असन्तुलन कायम हो गया, फलतः पश्चिमी
यूरोप तथा एशिया के मध्य ऐसी खायी पैदा हो गयी जिसे कभो पाटा
नही जा सकता | लोहिया के अनुसार “यूरोप में समाजवाद की
गति क्रमिक, स्वरूप स्वेधानिक तथा उद्देश्य वितरणात्मक रहा,
जबकि विश्व के अन्य भागों में यह तीव्र, श्रसंवेधानिक रहा, जहां
उत्पादन पर जोर दिया जाता है ॥/१ यूरोप मे प्रीचोगीकरण,
उत्पादन, वितरण श्रादि की समस्या एक-एक कर-क्रमिक रूप से-
श्रायी तया क्रमिक रूपसे ही उनका समाघान कर लिपा मणा । जचकि
दूसरी तरफ एशिया में ये सव समस्याये एक साय श्रायी, भ्रतः यहा
की व्यवस्थाश्नो पर दवाव पड्ना स्वाभाविक हौ गया । फलतः यहाँ
समाजवाद का वही रूप नहीं हो सकता, जो यूरोप मे रहा । यूरोप
उन्नति के इस स्तर पर पहुंच गया कि वहा उसकी समस्या उत्पादन
की न होकर वितरण की रही, दूसरी श्रोर विकास के रास्ते में
एशिया बहुत पीछे है। एशिया की माग है कि स्थानीय समस्याश्रो
को हल करने हेतु उत्पादन बढाया ज/ये । हालाकि लोहिया ने माना
कि यूरोप के समाजवाद का वेधानिक स्वरूप सराहनीय आदर्श
है, किन्तु तत्काल उद्देश्य प्राप्ति हेतु समाजवाद कीगति कोतीन्र
करना होगा ।
द्वितीय, किसी भी पिछड़े देश के समाजवादी प्रान्दोलन को अन्न्त-
रष्ट्रीय स्तर पर किसी भ्रन्य देश का समर्थन नहीं मिला। অল্প:
यूरोप से बाहर प्रत्येक देश में समाजवादी आन्दोलन की गति बहुत
धीमी रही । लोहिया का मानना है कि ग्राज यूरोपीय समाजवादी
देश भन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी भ्रान्दोलन के लिए परेशान नहीं है।
“कोमिस्को” जेसा प्रन्तर्शाष्ट्रीय समाजवादी संगठन भी केवलमात्र
पोस्ट प्रॉफिस बनकर रह गया है ।
तृतीय, ग्रुद भोर शान्ति मंग करने वालों के खिलाफ कोई प्रमाव-
शाली नियन्त्रणक नहीं रहा । प्रत्येक देश भलगाववादी स्थिति में
1. लोहिया; माक्स, गाँधी एण्ड श्ोशलिज्म, हैदराबाद: नवहिन्द, 1963, पृ, 477
हया विल दु पोकर एण्ड मादर शिम, हैदराबाद : नदहिन्द, 1956, ¶. 57.
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