भागवती कथा अष्टदश खण्ड | Bhagwati Katha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
256
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी - Shri Prabhudutt Brahmachari
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इन्द्र फो पुनः बह्य ह॒ृत्या १५
शुख्य का परलोक मे कोईकल नही होता । यहाँ लो छुछ दिल
साधु-साधु हुई; प्रशंसा फैली वह फल भी समाप्त दो गया । इसी
अकार पाप की चात है ! पाप करके हम स्वयं उसे सब पर प्रगट
कर दे, उस पाप के करने से लज्जा का अनुभव करें, परचा-
ज्षाप के कारश किसी को मुँह दिखाने से भी संकोच करे और
हृदय से--पर्चात्ताप पूर्वक भगवान से--उसके लिये क्मायाचना
करें तो वह पाप भी नष्ट हो जाता है। पापी की जो निन््दा
करते हैं, उसके पार्षों को बढ़ा-चढाकर उसे अपमानित करने की
आधना से स्वेत्र कहते फिस्ते है, उन निन््दकों पर पापी का
चाप चला जाता है। अतः पाप करके उसे सब पर प्रगट कर
देना चाहिये, हृदय से उसके लिये पछताना चाहिये और कभी
भूलकर भी किसी की निन्दा न करनी घाहिए।
श्रीशुकदेवजी कहते है--“राजन ! बृतच्नासुर के भर जाने
पर देवता, गन्धव, लोकपाल, सनुष्य, तियक् सभी तीनोंलोकों
के भाणी सुी हुए, केवल देवराज-इन्द्र को छोडकर। उस युद्ध
को देखने क लिये ऋषि, मुनि, देवता, पिवर, साध्य, शुद्यक, देत्य-
दानव, अ्रद्मजी, मद्दादेदजी तथा स्वयं विप्णुसगवान भी पथारे
थे। बच फे भारे जाने पर सब अपने-अपने लोफों को चले गये॥
पकिन्तु इन्द्र को शांति नहीं हुई।थे बडे दुस्ली और चिन्तित
ছু |)
यह सुनकर आश्चर्य फे सहित राजा परीदित ने पृद्रा--
भ्रभो ! यहु आप कैसी वात कह रहे है! धत्रके यथे
सबसे अधिक प्रसन्नता तो इन्द्र को दी होनी प्रादि
बृत्रासुर इन्द्र का ही तो मदाव--शत्रु या। लष्टाओआरन ऋष्ेहीं
तप और तेज से इन्द्र फे मारते फे लिये दी ~
किया था ' बह तो देवेच्छा से स्वर झा *
User Reviews
No Reviews | Add Yours...