श्रमण भगवान महावीर तथा मांसाहार परिहार | Shraman Bhagwan Mahaveer Tatha Mansahar Parihar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ अत्त वे अपने जीवन में किसी भी हालत मे अपने लिये अपवाद मागे का माश्रय नहीं लेते ¦ इसका आशय य्‌ हं किं वे अपने जीवन म हिसा आदि जिसमें हो एेसा कोई कायं नही करते । अत्तः प्राण्यग मासादि को ब्रहण करना उनके लिये असभव ही है इसलिये जैनो के पाँचवे आगम “भगवती सूत्र के विवादास्पद सूत्रपाठ के शब्दों का प्राण्यण मांसपरक अर्थ करना नितात अनुचित और गलत हैं तथा श्रमण भगवान्‌ महावीर को जो रोग था जिसके लिये उन्होंने जिस औषघ का सेवन किया था यदि वह प्राण्यण मास होता तो वह प्राणघातक सिद्ध होता । इसलिए उन्होंने बनस्पतियों से तैयार हुई औपधि का सेवन कर आरोग्य छाभ किया। वह औषध :-- “लबंग से सस्कारित बिजोरा ( जम्बीर ) फल का पाक” ओबध रूप में ग्रहण किया था । क्योंकि इस औषध में रक्‍त-पित्त आदि रोगों को शमन करने के पूणं गण विद्यमान हे । दवेतावर जनो दाग मान्य इस सूत्रपाठ का अथं वनस्पतिप्रक ओौषघ रूप मे मन्न दिगम्बर जन विद्वानों ने भी स्वीकार किया है और इस ओषध-दान की भूरि-भूरि प्रशसा की है। मात्र इतता ही नहीं, अपितु यह भी स्वीकार किया है कि भगवान्‌ को इस औषध दान देने के प्रभाव से रेवती श्राविका ने तीर्थकर नाम-कर्म का उपाजन किया, इसलिए औषब दान भी दना चाहिये । इससे स्पप्ट हैं कि सुज्ञ दिगम्बर जैन विद्वानों को भी इस औपध के वन्एतिपरक अर्थ में कोई मतभेद नही है। देखे इसी निबन्य बा पृष्ट ७८ । अधिके क्या कट्‌ गरुत तथा श्रान्तिपूर्ण ऐसा अनुचित प्रचार कर अति प्राचीनका से चे आये जैन घमं के पवित्र गौर सत्य सिद्धान्तो को तोड़-मोडकर रने से एेमे पवित्र सत्सिद्धान्तो से अज्ञान तथा द्वेषियो को मिथ्या प्रचार करने का भौका मिलता है। अत. कोई विद्वान यदि किसी गलतफहमी का शिकार हो भी गया है तो उसे इस बात को सत्य रूप मे जानकर अपनी भूल के लिये प्रतिवाद तथा पश्चात्ताप करना ही उसकी सच्ची विद्बत्ता की कसौटी है।




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