पटखंडागम: | Patkhandagam

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Patkhandagam  by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विपय-परिचय ११ चूलिका १ इस चूलिकामे निम्न ४ अनुयोगद्वार हैं--स्थितिवन्धस्थानप्ररूपणा, निपेकप्ररूपणा, आबाधा- काण्डकप्ररूपणा ओर अल्पबहत्वत । + › › स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामे चौदह जीवसमा- লী आश्रयसे स्थितिबन्धस्थानोंके अन्यबहुत्वक्की प्ररपणा की गयी है। अपनी अपनी उलृष्ट स्थितिमेंसे जघन्य स्थितिको कम करके एक अंकके मिल्ण देनेपर जो प्राप्त हो उतने स्थितिम्थान होते हैं। हम अल्पबहत्वको देशामशक सचित कर श्री শীল स्व्रामीने यहाँ अन्पबहुलके अव्वोगाढअन्प््रहुल्व ओर मूटश्रकृनिअन्पवट्व ये टो मेद वत्र कर खस्धान-परस्थानके भेदसे विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की टै । अत्वोगाद अन्पत्रहुल्वमे कर्मवि्नोपकी अपेश्वा न कर्‌ मामान्यनया जीवममामोक्रे आधाग्से जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, स्थितिवन्धस्थान और स्थितिबन्धस्थानविशेपका अन्पबहुत्व बतलाया गया है। परन्तु मूलप्रकृतिअन्पबहुस्वमे उन्हीं जीवममासोके आधास्से ज्ञाना- वरणादि कर्मोकी अपेश्ना कर उपरक्त जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबनन्धादिके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । आगे जाकर « শ্রৎনন হলি बन्धः, स्थितिश्रारी बन्सश्च स्थितिबन्धः, तस्थ स्थान विशेष, स्थितिवन्धस्थानम : अथवा बन्चने बन्‍्थः, स्थितेबेन्धः स्थितिबन्धः, सो5स्मिन्‌ तिप्रतीति स्थिति- बन्धस्थानम इन दो निरुक्तियोंके अनुसार स्थितिबन्धम्थानका अर्थ आबाधाम्थान करके पूर्वोक्त पद्धतिके ही अनुसार अब्बोगादृअल्यबहुत्वमे स्वस्थान-परख्थान खरूपसे जघन्य व उस्कृष्ट आवाघा, आबाधास्थान और आबाघास्थानविशेषक्रे अब्पबहत्वकी सामान्यतया तथा मृलग्रकृतिअल्यबहुलमें इन्हींके अन्यबदृत्वकी कर्मविशेषके आधास्से प्ररूपणा की गयी है। तत्पश्रात्‌ जधन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान और आवबाधाविदश्प, टन सबके अन्बहत्वकी श्ररूपणा प्रोक्ति पद्धतिके ही अनुसार सम्मिल्ठित रूपमे एक साथ भी की गयी है । तत्पश्चात्‌ “ स्थितयो वध्यन्ते एभिरिति स्थितिवन्धः, तेपां स्थानानि अवस्थातिनिपाः स्थितिवन्ध- स्थानानि! उम निरुक्तिके अनुमार स्थितिबन्धस्थानपदमे स्थितिवन्धकरे कारणभूत संकट व विद्युद्धि रूप परिणामोंकी व्याख्या प्रकूपणा, प्रमाण व अन्यबहुत्व टन ३ अनुयोगद्वारोंसे की गयी है। संक्लेश- ्रिदयुद्धिस्थानोका अल्पवहून्व स्वयं नूलप्रन्थकती भद्रारक भूतवन्ट्कि द्राग चौदह जीवममामोकरि आधारमे किया गया है । तश्चाच्‌ स्थितिवन्धकी जघन्य व॒ उत्कृष्ट आंदि अवस्थाविश्वपोंके अल्पबहूत्वका भी वणैन मूलमूत्रकागने स्वयं ही किया ই? | ( २) निषेकप्ररूपणा- संज्ञी पेचेन्दिय मिथ्यादृष्टि पर्या आदि विविध जीव ज्ञानावरणादि कमौके आवाधाकाल्को छोडकर उत्कृष्ट स्थितिकै अन्िम समय पर्यनन प्रथमादिक ममयोमे किम प्रमाणसे द्रव्य देकर निपेकरचना कने रहै, उसकी प्ररूपणा उम अभिकाममे प्रर्पणा, प्रमाण, प्रणि, अवहार, मागाभाग ओर अल्पवहू्व, इन ६ अनुयोगदरागेकर द्राग विस्तारे की गई है । १ यदह अन्पबहुत्व श्वेताम्बर कमेपरङृनि प्रनथकी आचार्यं मलयगिरि विरचि,- ग॑ग्करृत ठीक भी यन किंचित्‌ मेदकै माथ प्रायः ज्यका त्यो पाया जाता है ( देखिये कमेप्रकृति गाथा १, ८०-८१ की टीका )। इसके अतिरिक्त यहां अन्य भी कुछ प्रकरण अनदित जैसे उपलब्ध होते हैं।




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