वीर तपस्वी | Veer Tapsvi

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Veer Tapsvi by छोगालालजी -Chhogalalji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६]. को ही है। यह सब धर्म के प्रभाव से हुआ है, ऐसा मान, धर्म की ओर इनकी रुचि अधिक बढ़ने लगी। यथार्थ में यदि सोचा जावे तो अपने कृत पुराय-पाप या शुभ-अशुभ कर्मों का फल है। धर्म पालन की ओर तो सभी को लगना ही चाहिये। क्योंकि यही आत्मा को उन्नति का साधन है। व्योर मारतवर्ष तो इसके लिये प्रसिद्ध ही है। यहाँ के वासियों की इस ओर प्रवृत्ति होना स्वाभाविक ही है । इसीसे ये तपस्या करने लगे । और तपस्या हर चातुर्मास में विशेष रूप से करते हैं । इन्होंने एक दिन से लेकर २३ दिन तक की तपस्या की है । পপ চি পপ वैराग्य-भाव লা লা गुरू गू गृहक ° प्रत्येक मनुष्य की विचार-धारा प्रतिक्षण मे बदलती रहती है। जो विचार इस समय हैं, वे कुछ समय बाद नहीं रहेंगे । लेकिन कुछ विचार ऐसे द्वोते हैं जो कभी हटते द्वी नहीं, ये ही विचार हृढ़ विचार. कहलाते हैं, इन्हीं से काये होता हृश्रा देखा जाता दै। संसार में भी दृढ़ विचार वालों की.प्रशंसा द्वोती है, और च्ञणिक विचार वालों का विश्वास उठ जाता है। यददी नियम धार्मिक प्रवाह के लिये भो लागू होता है। उसी के अनुसार छुब्बूभाई के विचारों में भी परिवर्तन होना आरम्भ हो गया। उनकी श्रद्धा धर्म के प्रति पदले से टी थी । वद्द अब ओर दृढ़ होती जाती थी। अब उनकी दृद़ता देखिये:--- मन्दसौर में भ्री मज्जेनाचाये शाज्रज्ञ, पूज्य श्री म्तालालजी|म० सा० की सम्प्रदाय के मुनि श्री छ्ोटेलालजी म० सा० का शेखे काल पधारना हुआ । उन्होंने छब्बूमाई की बढ़ती हुई तपस्या तथा धार्मिक प्रशत्ति को देख कर झात्म- कल्याणा करने का उपदेश रूप व्याख्यान दिया । जिसका आशय বন था कि यह संसार असार है, इसमे उत्पन्न होने बाजे समी पदार्थं एक दिनि अवश्य नाश होते हैं । फिर उनके लिए व्यर्थ का पापास्षव क्‍यों किया जावे। संसार में कुदम्बीजन भी अपने स्वाथ के सगे हैं, उनके स्वार्थ में यदि जरासा भी




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