जयसंधि | Jaisandhi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
226
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अय-संधि १४
“नहीं बहन, नहीं । यहां उनकी खौर नहीं हे । कह देना कि सा न
'सोचें ओर बहन, हम लोग कुछ नहीं कर सकतीं । अपने विवाह तक पर
तो हमारा वश नहीं है। आगे हम क्या कर सकती हैं ? युद्ध होगा तो हो ।
जाओ बहन, कह देना कि किसी को किसी पर दया करने की जरूरत
नहीं हैं ।”
बसन्त सब तरह की कोशिश करके हार गईं । ओर लोटकर सब हाल
पति को कह सुनाया ।
सुनकर यशोविजय कुछ विचारते रह गए। फिर कहा, ' बसन्त,
यश पागल हो गईं है। में उससे मिलने जाऊंगा ।”
बसन्त--पर उसने मना किया है। ओर तुम्हारा लोॉटकर आना
कठिन है ।
यशोविजय हंस पड़े | बोले, “कठिन में नहीं जानता, बसन््त ! यह
जानता हूं कि समय से पहले मेरा मरना असम्भव है ओर उघर यश एक-
दम बोरा गई है। तुम्हीं कहो, में रूक सकता हूं ?”
आर यशोविजय नहीं रुके ।
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यशस्तिलका बहुन घबरा गह् । जब परिचारिका के हाथ उसन पत्र
पाया कि यशोत्रिजय से आथी रात के समय वह स्व्यं বার কুল লী
आकर न मिली तो वह शयन-कक्त में जाय॑ंगे।
यह सूचना पाकर वह किसी तरह कुछ भी अपने लिए निश्चय ने कर
सकी । जाने का समय हुआ कि कुंज में भी न जा सकी । वह जाग रही
थी ओर जाना चाहती थी पर पांव मैसे बंध गए हों । वह उस समय
पत्नंग पर उठकर बेठी थी, पर उतर कर चलना उसके लिए संभव नहीं
हुआ । ऐसे बेठी रहकर अ्रन्त में सब बत्तियां बुकाकर वह फिर लेट गई ।
यशोविजय ठोक समय पर कक्ष में आ उपस्थित हुए | बत्ती बढ़ाकर
देखा कि यश पलंग पर आंख मृ दे लेटी है । सीधे सिरहाने बैठकर यशो-
विजय ने हाथ पकड़कर कहा “यश, उठो, तुम सो नहीं रही हो ।'
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