जयसंधि | Jaisandhi

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Jaisandhi by जैनेन्द्रकुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अय-संधि १४ “नहीं बहन, नहीं । यहां उनकी खौर नहीं हे । कह देना कि सा न 'सोचें ओर बहन, हम लोग कुछ नहीं कर सकतीं । अपने विवाह तक पर तो हमारा वश नहीं है। आगे हम क्या कर सकती हैं ? युद्ध होगा तो हो । जाओ बहन, कह देना कि किसी को किसी पर दया करने की जरूरत नहीं हैं ।” बसन्त सब तरह की कोशिश करके हार गईं । ओर लोटकर सब हाल पति को कह सुनाया । सुनकर यशोविजय कुछ विचारते रह गए। फिर कहा, ' बसन्त, यश पागल हो गईं है। में उससे मिलने जाऊंगा ।” बसन्त--पर उसने मना किया है। ओर तुम्हारा लोॉटकर आना कठिन है । यशोविजय हंस पड़े | बोले, “कठिन में नहीं जानता, बसन्‍्त ! यह जानता हूं कि समय से पहले मेरा मरना असम्भव है ओर उघर यश एक- दम बोरा गई है। तुम्हीं कहो, में रूक सकता हूं ?” आर यशोविजय नहीं रुके । ® के $ यशस्तिलका बहुन घबरा गह्‌ । जब परिचारिका के हाथ उसन पत्र पाया कि यशोत्रिजय से आथी रात के समय वह स्व्यं বার কুল লী आकर न मिली तो वह शयन-कक्त में जाय॑ंगे। यह सूचना पाकर वह किसी तरह कुछ भी अपने लिए निश्चय ने कर सकी । जाने का समय हुआ कि कुंज में भी न जा सकी । वह जाग रही थी ओर जाना चाहती थी पर पांव मैसे बंध गए हों । वह उस समय पत्नंग पर उठकर बेठी थी, पर उतर कर चलना उसके लिए संभव नहीं हुआ । ऐसे बेठी रहकर अ्रन्त में सब बत्तियां बुकाकर वह फिर लेट गई । यशोविजय ठोक समय पर कक्ष में आ उपस्थित हुए | बत्ती बढ़ाकर देखा कि यश पलंग पर आंख मृ दे लेटी है । सीधे सिरहाने बैठकर यशो- विजय ने हाथ पकड़कर कहा “यश, उठो, तुम सो नहीं रही हो ।'




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