रघुवंश | Raghuvansha

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Raghuvansha by कालिदास - Kalidas

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कालिदास - Kalidas

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देवीरत्न अवस्थी - Deviratn Awasthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अथम सर तुल्य नेत्र मभुगों को वे, दोनो ही देखते चले। पास ही लीक छोड़े जो, रथ को थे निहारते 1[४०॥ देखते सारसों को चे, मुख दोनों उठा-उठा | तोरणें स्तम्महीना-सी, बोलती पंक्ति बाँध जो ॥४१॥ प्राथना सिद्धि की द्री, अनुकूला समीर थी | केशा पाग ने द्भ पाई, टापों से बलि जो उड़ी ॥४रा। पञ्च गनध तड़ामों की, वीचि विक्षोभ शीतखा। अपनी साँस -सी सोंधी, दोनों को प्राप्त हो रही ॥४३॥ पुण्य दान उन्हीं कै ये, युप सम्पन्न ग्राम थे। सफला साध्यं आश्वीषें, जहाँ के विप्र दे रहै ॥४५]]




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