ज्ञानेश्वरी | Gyaneshwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अजी | जमा हुवा घृत | जमकर भी ভা ভুল | था कैकर रुएमें भी पार्थ | होता सोना ही ॥ १४-३७८ इसलिये विश्वत्वका निवास्ण | कर फिर करना भैरा अहण । ऐसा नहों जान तू यह संपूण । विद्वदीम १४-३९० ॥ इस तादात्म्यके साथ परमात्मासे समरस होना ही भक्ति है एस उन्हेंने भक्तिका सार- सर्वस्व कह दिया। परमात्माको संपूर्ण रूपसे विश्वके साथ जानना ही अव्यभ्रिचारी भक्ति है । इसमे मेद करना व्यभिवार ऐसे अव्यभिचारी भक्तिका अर्थं करते समय झानेश्वर महाराजने स्पष्ट रूपसे कहां हे 1 अर्थात्‌ संपूर्ण तादात्म्यके साथ ब्िश्च-सह विश्वात्माम लीन होना ही अव्यभिचारी भक्ति हैं। यदि यहां विश्व तथा विश्वात्मार्म मेदका दर्शन होता है तो उसको व्यभिचार समझना ! इसके लिये अमेद चित्त हाकार अपने साथ आत्माकों जानना चाहिये । सोनेसे सोना जडा जानेकी भांटि, तेजसे तज-किरण ग्ररफुटित होने की भांति, भ्रतलसे परमाण ओर्‌ हिमाचले मकण प्रसफटित हन्ने मति, यह विद आर विश्वात्मा अभिन्न है। सागर ओर उसकी लदद॒रकी भांति विश्व आर विश्वात्मा अभिन्न है ऐसी एकात्मकता सर्वत्र और सतत अनुभव करना अनन्य भक्ति है । इसी बातका आर अधिक स्पप्र करते समय ज्ञानेश्वर महाराज कहते ज्ञानी इसको स्व संवित्ति । शेध कहते हैं इसे शक्तित । तथा हम परम भषित । कहते अपी ॥ १८-१६३३ ॥ वसे ही ओर एक स्थान पर कहते हैं मेरे सहज प्रकाशकों भक्तित कहते है সন্ত লনন্দ মন্ধিত 'कैसे अंद्रेत भक्ति बनती है यह अनेक दृष्टात देकर जनिश्वर महाराजने समझाया है। एक स्थान पर वे कहते हैं जैसे तरुणी अपने तारुण्यका भोग करती ह वैसे भवत पामात्माका भोग करता है। पानी जैसे अपने सर्वागसे बिका चुंतन करके प्रतिविदका अपनेसे भोग करटा है जैसे अलंकार स्वणका भोग करते है जैसे चंदन सुरगंधका भोग करता है बसे चंद्र चांदनीका भोग करता है, वेसे भक्त स्त्रयं परमात्मा बनकर अपनेगे अपने परगात्याका भोग करता है| यह भक्ति कोई क्रिया नहीं है किंतु एक अनुभव ६ | शानेश्वर महाराजने (से अनमबका নাল करते हुए दस प्रकरणाका अद् संचाबसत नामय स्वतस अभय ही लिखा | ठस अनर्म इस अनन्य भक्तिका बिस्तारके साथ विवेचन किया है जो कोई आानइयर महाराजके अंथोंका ययन करेगा उसकों जीवन विश्व तथा विद्यात्मा॥ ओर देखने एक विशिष्ट श्रि मिलती ह । क्यो किं ज्ञनेदवर महाराज स्यतः एक श्रेष्ठ अमभावी संत थे । হলনা भेद: मिट गयी थी । वे वेन अभेदका अद्रयानुभव करते थे } सवत्र विश्यात्मक देवका दशीन करते थे, उनको सत चित्‌ आनद्‌ अथवा सत्य शिवं सुकरम इन भिन्न भिन्न शह्दसे संबोधन की जानेवाती शक्ति केवलं आर्नदमय बनं गयी थी | इस आरनंदर्म सबको सम्मिलित करना शह आनंद सबको वितरण करना या यह आनंद सबको मिले ऐसा करना उनका বারন না बन गया था | इसीलिये न साष्धिप्यम त्र कल्पना; भावना, त टिक নিল মিল শমী कध सर्वत्र केवल सौंदर्य निर्मितीका कारण बने है | शास्त्र ओर काव्य / सीमारेखा पॉछ गयी है मणशक्िति चितनशक्रित, वुद्धि सकत आदिं सभी शक्ति एक जीव एक्‌ शूप बनकर शुद्ध वस्तुरूपके साक्षात्कार करनेके लिये संवेदन रूप बनकर वही संबेटन जीवनी ओतप्रोत अनं এ, ও गया था। यही संवेदनशील हृदय शब्दका आकार अनकर प्रकट दता আলা ঘা। तथा शानेश्वरी १९




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